उल्कापिंडों ने नष्ट कर दिया था मंगल ग्रह से जीवन
सिडनी। अंतरिक्ष के मंगल ग्रह पर 3 करोड़ साल ज्यादा तक उल्कापिंडों की बारिश हुई थी। इससे मंगल ग्रह से जीवन समाप्त हो गया था। इस समय को लेट हैवी बम्बॉर्डमेंट कहते हैं। इसका संबंध धरती पर जीवन की शुरुआत से भी है। यह स्टडी उस उल्कापिंड की स्टडी पर आधारित है जो उत्तर-पश्चिम अफ्रीका में मिला था। इसका नाम है ब्लैक ब्यूटी। वैसे वैज्ञानिकों ने इसे एनडब्ल्यूए-7034 नाम दिया है।
इस उल्कापिंड में मंगल ग्रह की प्राचीनता के सबूत है, जो करीब 450 करोड़ साल पुराने माने जा रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया स्थित कर्टिन यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर और स्टडी के प्रमुख शोधकर्ता मॉर्गन कॉक्स ने अपने बयान में कहा कि यह उल्कापिंड साल 2013 में मिला था। इसपर भारी मात्रा में क्षति के निशान हैं। आमतौर पर ऐसे क्षति के निशान जिरकॉन खनिजों में मिलते हैं। या फिर ऐसी क्षति वाले स्थानों पर जिरकॉन पाए जाते हैं। ये तभी बनते हैं, जब कोई ताकतवर उल्कापिंड किसी ग्रह से टकराता है।जिरकॉन धरती पर भी जमा है। जो डायनासोर को मारने वाले एस्टेरॉयड की टक्कर के बाद बना था। यह चांद पर भी मिलता है।कुछ स्टडीज में यह माना गया है कि मंगल ग्रह पर उल्कापिंडों की टक्कर 485 करोड़ साल पहले रुक गई थी। शुरुआती मंगल ग्रह गीला और गर्म वातावरण वाला ग्रह था। वायुमंडल भी काफी घना था। जिसकी वजह से उसकी सतह पर जीवन की उत्पत्ति हुई होगी। मंगल ग्रह पर पानी भी रहा होगा। जिसकी वजह से 420 करोड़ साल पहले वहां पर जीवन की संभावना थी। लेकिन उल्कापिंडों की लगातार बारिश से जीवन और पानी सब समाप्त हो गया। यह स्टडी हाल ही में साइंस एडवांसेस नाम के जर्नल में प्रकाशित हुई है। कुछ दिन पहले भी एक स्टडी आई थी, जिसमें कहा गया था कि मंगल ग्रह पर 60 करोड़ सालों तक एस्टेरॉयड की बारिश होती रही है। जिसकी वजह से मंगल ग्रह की सतह पर इतने ज्यादा गड्ढे दिखते हैं। आमतौर पर वैज्ञानिक सतह पर मौजूद गड्ढों की वैज्ञानिक गणना करके ग्रह की उम्र का पता लगाते हैं।
अगर ज्यादा गड्ढे दिखते हैं, तो ज्यादा सटीक उम्र का पता लगाया जा सकता है।क्रेटर यानी गड्ढों के निर्माण की प्रक्रिया बेहद जटिल होती है। क्योंकि ये एक अनुमानित जानकारी ही देते हैं। क्योंकि अब कोई मंगल ग्रह पर तो गया नहीं है कि वहां जाकर वो गड्ढों की जांच करे। क्योंकि एस्टेरॉयड्स की टक्कर से पहले कई तो वायुमंडल में जलकर खत्म हो जाते हैं। सिर्फ बड़े वाले ही जलते-बुझते और घिसते हुए सतह पर टकराते हैं। वो ही सतह पर टकराकर गड्ढे बनाते हैं। एक नई रिसर्च में वैज्ञानिकों की टीम ने न्यू क्रेटर डिटेक्शन एल्गोरिदम की मदद से मंगल ग्रह के 521 गड्ढों की स्टडी की। इनमें से हर गड्ढे का व्यास कम से कम 20 किलोमीटर है। लेकिन सिर्फ 49 गड्ढे ऐसे हैं जो 60 करोड़ साल पुराने हैं। इनका निर्माण लगातार हुआ है।
एक के बाद एक। इससे पता चला कि 60 करोड़ सालों तक मंगल की सतह पर एस्टेरॉयड्स की बारिश होती रही है। ऑस्ट्रेलिया के कर्टिन यूनिवर्सिटी के प्लैनेटरी साइंटिस्ट और इस स्टडी में शामिल शोधकर्ता एंथनी लागेन ने कहा कि यह स्टडी पुराने अध्ययनों को खारिज करती है, जो ये कहते थे कि क्रेटर एक छोटे समय में बने होंगे।