अब रीढ की हड्डी का भी किया जा सकेगा प्रत्यारोपण



लंदन। अब रीढ की हड्डी का प्रत्यारोपण भी किया जा सकेगा। लंबे वक्त से इस पर रिसर्च चल रहा था जिसे लेकर अब चिकित्सकों को सफलता हासिल हुई है। रीढ की हड्डी के प्रत्यारोपण की प्रक्रिया में जो इमप्लांट लगाया जाता है वह उसकी मांसपेशियों को एक इलेक्ट्रिकल पल्स यानि स्पंद भेजता है, जो एक तरह से दिमाग की क्रियाविधि की नकल करती है। इस तरह से ऐसे लोग जो गंभीर रीढ़ की हड्डी की चोट से गुजर रहे हैं और चलने फिरने में सक्षम नहीं है। वह इसकी मदद से फिर से चल फिर पाएंगे।

इससे पहले इसी तरह के 2018 में हुए अध्ययन से निचले शरीर में लकवाग्रस्त हुए लोगों को इसकी मदद से चलने में मदद की गई थी। उस अध्ययन को भी इसके साथ शामिल किया गया था। हाल ही में जब एक मरीज पर इन इलेक्ट्रिकल पल्स का इस्तेमाल किया गया तो वह अपने दम चल सका था। जानकारी के मुताबिक इस अध्ययन में तीन लोगों को शामिल किया गया था, यह तीनों ही किसी दुर्घटना की वजह से निचले शरीर को हिलाने- डुलाने के काबिल नहीं रहे थे। तीनों ही मरीजों मं 6 सेमी का इम्प्लांट लगाया गया था जिसके बाद वे चलने में सक्षम हो गये हैं।

इस ट्रायल में मदद करने वाले डॉक्टर जोस्लीन ब्लोक, जो लॉसेन यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल की न्यूरोसर्जन हैं, उनका कहना है कि पहले लगाए गए इम्प्लांट की तुलना में यह इलेक्ट्रोड लंबे और बड़े स्तर पर थे। नई तकनीक की वजह से हम अब ज्यादा पेशियों तक पहुंच सकते हैं। शुरुआत में तो मरीज कुछ कदम चलने में सक्षम थे, जिसने शोधार्थियों को उत्साहित किया और कुछ वक्त के अभ्यास के बाद ही मरीज अब कई घंटे तक खड़े रह सकते हैं और करीब एक किलोमीटर तक चल सकते हैं। यही नहीं ट्रायल के दौरान पाया गया कि वह सीढ़ी चढ़ने और तैरने में भी सक्षम हो गये थे।हालांकि, यह सुधार इलेक्ट्रिकल उत्तेजना पर निर्भर करती है, मरीज जो कंप्यूटर साथ में लेकर चलता है उसके जरिए भेजी गई स्पंद से यह सक्रिय होती है। अब तक यह इम्प्लांट महज निचली थोरेसिन रीढ की हड्डी में लगी चोट में ही कारगर है।

खंड उदर से गर्दन के निचले हिस्से को चलाने के लिए क्योंकि 6 सेमी स्वस्थ्य रीढ की हड्डी की जरूरत होती है। शोध में पाया गया है कि इसके जरिए रक्तचाप को भी नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन अभी इसके साथ मरीज को एक कंप्यूटर लेकर चलना होता जो एक बड़ी बाधा है, अब वैज्ञानिक इसे छोटा करने की कोशिश में जुटे हैं जिससे मरीज स्मार्टफोन से इसे नियंत्रित कर पाएं। चिकित्सा विज्ञान ने अपने शोध से लकवाग्रस्त लोगों में उम्मीद की नई किरण जगाई है।