मुआवजा दर मुआवजा का गोरधखंधा





ठगे रह गये जिले के मूलनिवासी

काल चिंतन कार्यालय

वैढ़न,सिंगरौली। सिंगरौली जिले को औद्योगिक नगर बनते बनते बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ। एनटीपीसी-एनसीएल से पहले एनसीडीसी एवं रिहंद ने भी विस्थापन किया था। दशकों पहले विस्थापित हुये लोग दर्जनों बार विस्थापित हुये। प्राईज ऑफ पॉवर (ऊर्जा की कीमत)अदा करते करते सिंगरौली के मूल निवासी थक गये हैं। रियासत के जमाने में साढ़े सात सौ गांव एमपी के और साढ़े सात सौ गांव यूपी के रिहंद परियेाजना से प्रभावित हुये। सारा इलाका डूब में समाहित हो गया। विस्थापन की त्रासदी यहीं से शुरू हो गयी। 

विस्थापन और पुनर्वास यह सिंगरौली जिले का अहम मुद्दा रहा है। जनप्रतिनिधियों ने कभी भी इसपर ध्यान नहीं दिया है। जब भी विस्थापन और पुनर्वास की बात आयी सिंगरौली जिले के प्रशासन ने कंपनियों के प्रति साफ्ट कार्नर अपनाया जिससे जिले के मूल निवासी जिन्होने अपनी जमीनें दी हैं वह ठगे रह गये हैं।  आजकल विस्थापन और पुनर्वास एक धंधा बन गया है। धंधा इसलिए बन गया है क्योंकि इसमें जिले के सुविधा संपन्न लोग, जिले के प्रशासनिक अधिकारी, जिले का पुलिस विभाग, जिले का राजस्व विभाग पूरी तौर पर सक्रिय हो चुके हैं। ताजा स्थिति यह है कि चाहे मुहेर  गांव का विस्थापन हो, चाहे बंधा गांव का विस्थापन हो, चाहे झलरी गांव और सुलियरी कोल माइंस का विस्थापन हो या धिरौली गांव विस्थापन हो हर जगह विस्थापन का गोरखधंधा नजर आता है। जिले के करीब-करीब सभी विभाग के जिम्मेदार लोगों ने अपने रिश्तेदारों, दोस्तो, पत्नियों, बेटों सबके नामों पर जमीनें लेकर अधकचरे मकान बनाये गये। स्थिति यह है कि इन गांवों में आने वाली परियोजनाओं की भनक मिलते ही शहर के जिम्मेदार लोगों ने वहां जमीनें हथियायी और टीन शेड बनाये। कई स्थानों पर जर्जर ढलाई करवायी। पूछने पर पता चलता है कि यह फला अधिकारी का मकान है, यह फलां तहसीलदार का मकान है, फला पुलिस वाले का मकान है। ये सारे मकान जो कथित रूप से पुलिस, राजश्व कर्मचारियों-अधिकारियों के रिश्तेदारों के मकान बताये जाते हैं उन सभी के बनने का औचित्य करोड़ो रूपये मुआवजा हासिल करने का है। अब सवाल यह उठता है कि मूल निवासी कहां गये? मुआवजा किसकों मिल रहा है? पता चला कि केले का ठेला लगाने वाले का मकान बना हुआ है। वैढ़न में पान की गुमटी लगाने वाले का मकान बना हुआ है। राजस्व विभाग के किसी अधिकारी का मकान बना है। दूर दूर तक के रिश्तेदार उस अधिकारी के नाम पर मकान बनवाये हुये हैं। चूंकि अधिकारी का नाम है इसलिए कोई बोलने वाला नहीं है। अब कंपनी के प्रबंधन की जिम्मेदारी है कि इनका मापन करवाये और इन्हें मुआवजा दे। 

हैरत की बात यह है कि जितने लोगों इन आने वाली कंपनियों के अधिग्रहण के ईर्द-गिर्द मकान बना है इनके मूल निवास की जांच की जाये तो मामला दूध का दूध और पानी का पानी हो सकता है। मजे की बात यह है कि कई स्थानों पर गांव के मूल निवासियों से यह कहकर जमीन ली गयी कि तुम हमें जमीन मौखिक रूप से जमीन लीज पर दो इसपर मैं अपना मकान बनाऊंगा। जमीन का मुआवजा तुमको मिलेगा क्योंकि तुम्हारा नाम है। मकान का मुआवजा मैं लुंगा उसमें से कुछ तुमको दे दूंगा। दूसरों की जमीन पर मकान बनवाने की इस गणित में मकान बनवाने वाले का करोड़ो रूपये का मुआवजा बन रहा है। जिसने जिंदगी में लाख रूपये नहीं देखे उसका ९० लाख का मुआवजा बन रहा है। इस प्रकार मुआवजा लेने के निमित्त ताजा-ताजा बने मकानों की मालियत और उनकी कीमत का अंदाजा लगाया जाये तो आने वाली कंपनी के प्रबंधन पर अरबों रूपये का अतिरिक्त भार पड़ने वाला है और प्रशासनिक सूत्र बताते हैं कि कंपनियां जमीन छोड़कर भागने की फिराक में हैं।