स्वयंभू एक्टिविस्ट और शरारती सेकुलरिस्ट

कुछ लोग मेरठ के पुलिस अधीक्षक(सिटी) अखिलेश नारायण सिंह से खफा हैं। सिंह ने उन दंगाइयों की अक्ल दुरूस्त कर देने की चेतावनी दी थी जो पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगा रहे थे। पुलिस पार्टी को देखते ही नारे लगाने वाले भाग निकले लेकिन सिंह ने वहां मौजूद उन दो-तीन लोगों को जमकर फटकारा जो उपद्रवियों को जानते थे। उन्होंने कहा, 'इनसे कह दो पाकिस्तान चले जाओ..खाओगे यहां का, गाओगे कहीं और का...।' घटना 20 दिसंबर की बताई गई है। सोशल मीडिया में इसका वीडियो वायरल होते ही  प्रतिक्रियाएं आने लगीं। खबर भी बनी है। मीडिया के एक वर्ग ने शातिराना ढंग से बनाई गई खबर में घटना का एक ही पक्ष पेश किया। यह बताने की कोशिश की गई कि मुसलमानों से पाकिस्तान चले जाने को कहा गया है। सिंह के लिए राहत की बात है कि वह अलग-थलग नहीं दिख रहे। उनके पक्ष में बड़ी संख्या लोग खड़े हैं। सिंह की टिप्पणी इस आम नजरिया से मेल खाती है कि पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने वालों को यहां रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। एक जाबांज पुलिस अधिकारी की दो टूक का हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से विश्लेषण कतई स्वीकार्य नहीं हो सकता। इन विश्लेषणों में कुटिलता से पनपी निपट मूर्खता झलक रही है। 
मेरठ सिटी के एसपी से नाराज लोगों में कुछ राजनेता, तथाकथित सेकुलरिस्ट, लेफ्टिस्ट पत्रकार, बुद्धिजीवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। आरोप लगाया जा रहा है कि सिंह की टिप्पणी से उनकी साम्प्रदायिक सोच झलकती है अत: उन पर कार्रवाई की जाए। सच यह है कि उन्होंने ऐसा कुछ कहा ही नहीं था जिससे आधार पर उनकी टिप्पणी को साम्प्रदायिकता के जहर से बुझा तीर मान लें। सिंह सही अर्थों में एक राष्ट्रभक्त हैं। वह उपद्रवियों की भीड़ में मौजूद देशद्रोहियों द्वारा पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने वालों के समक्ष मूकश्रोता नहीं बने रह सके। सिंह से नाराज लोगों में अधिकांश उसी बिरादरी से  हैं जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन टुकड़े-टुकड़े गैंग को मिलता है, जिन्हें राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान के प्रति सम्मान व्यक्त करने में शर्म आती है और जिसे बौद्धिक अंधत्व से ग्रस्त कहा जा सकता है। इस बिरादरी वालों की छद्म सेकुलरिस्टों के साथ खूब छनती है। कांग्रेस के एक बड़े नेता का बयान पढऩे में आया। वह ज्ञान दे रहे हैं कि अधिकारियों को बयानबाजी और टिप्पणी करते समय मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। ऐसी प्रतिक्रिया पर आश्चर्य नहीं होता। भारतीय राजनीति में तुष्टिकरण और लल्लो-चप्पो के निकृष्टतम उदाहरण भरे पड़े हैं। मीडिया के एक वर्ग पर वाम सोच का नशा चढ़ा है। उनके खुराफात अलग चलते रहते हंै। एनआरसी, सीएबी और अब सीएए पर उनकी कलम लगातार वमन कर रही है। 
उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने जिस दृढ़ता के साथ हालत पर काबू पाया उसे कई लोग सहन नहीं कर पा रहे हैं। दंगाइयों की पहचान और उनकी सम्पत्ति जब्त करने जैसे कदम अभूतपूर्व हैं। इस तरह के साहस की अपेक्षा सिर्फ कर्मठ, ईमानदार और देशहित की सोचने वालों से ही की जा सकती है। योगी सरकार की सख्ती का परिणाम है कि उत्तर प्रदेश में हालात काबू में हैं।  प्रीवेंसन आफ पब्लिक प्रापर्टी एक्ट 1984 को अस्तित्व में आये लंबा समय गुजर चुका है। इस दौरान उपद्रवों और दंगों में अरबों रुपये की सम्पत्ति बर्बाद की जा चुकी है। प्रश्र यह है कि कितनी बार उपर्युक्त कानून के सहारे विध्वंसकारी तत्वों को सबक सिखाने का साहस दिखाया गया? आंदोलनों, हड़ताल और बंद के दौरान प्राइवेट और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाये जाने को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में कानून में बदलाव के सुझाव देने के लिए एक कमेटी बनाई थी। कमेटी की सिफारिश के आधार पर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने दिशा-निर्देश जारी किए थे। इनका असर सीमित रहा। विरोध प्रदर्शन के दौरान सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाने वालों की पहचान कठिन होती थी। उपद्रव-आयोजक खुलकर सामने नहीं आते थे। योगी सरकार ने दंगाइयों की पहचान के लिए वैज्ञानिक साधनों की मदद ली। उन पर कार्रवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों को आधार बनाया है। 
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, वामदलों के लोग और आये दिन शोर मचाने वाले एक्टिविस्ट आखिर किस दुनिया में जी रहे हैं? विरोध प्रदर्शन की आड़ में हिंसा, पथराव, उपद्रव और आगजनी करने वालों से कैसे निबटा जा सकता है? सख्ती के बिना आज तक एक भी उपद्रव शांत किया जा सका है? इसमें किसी के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन कैसे हो जाता है? इस तरह की बातें लोकतंत्र के साथ कपट और दोगुला व्यवहार है। यह समर्थन का हकदार कतई नहीं हो सकता। एक एक्टिविस्ट ग्रुप की कथित तथ्य खोजी टीम उत्तर प्रदेश घूम-फिर आई। टीम शामिल विभूतियों को उत्तर प्रदेश में आतंक का शासन दिखा। उत्तर प्रदेश में सरकार प्रायोजित आतंक का आरोप लगाते हुए इसकी जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में विशेष जांच दल से कराये की मांग की गई। एक्टिविस्ट ग्रुप की टीम की निष्पक्षता का अनुमान लगाना कठिन कार्य नहीं है। नाम लेते ही उनका काम स्वत: आंखों के सामने घूम जाता है। कॉलिन गोंसाल्वेस, हर्ष मंदर, कविता कृष्णन, नदीम खान, योगेन्द्र यादव, स्वरा भास्कर और जीशान अयूब जैसे स्वनामधन्य पर कुछ बोलने-समझने की जरूरत कहां रह जाती है। एक्टिविस्ट टीम यूपी में मारे गए लोगों के परिवार को मुआवजा देने और पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई की मांग कर रही है। हिंसा में लिप्त लोगों, दंगाइयों और उत्पातियों के प्रति हमदर्दी शर्मनाक है। योगी सरकार के रहते इनकी मांग पर विचार की संभावना नहीं है। अब तो कर्नाटक सरकार ने भी दो दंगाइयों के परिजन को मुआवजा देने के निर्णय पर अमल फिलहाल रोक दिया है। यूपी पुलिस की सख्ती समर्थन की हकदार है। इसी तरह मेरठ के एसपी सिटी अखिलेश नारायण सिंह जैसे अधिकारियों की पीठ थपथपाई जानी जरूरी है। एक्टिविस्ट और सेकुलरिस्टों के प्रलाप को अनसुना किया जाना चाहिए।