सीडीएस पर भी सियासत, कुछ तो संकोच करे

काफी पहले ग्वालियर जाना हुआ था। रेल्वे स्टेशन केे समीप एक बूढ़ा भिखारी दिखा जो आने-जाने वालों पर बेवजह भड़क रहा था। गुजर रहे लोगों में से कुछ अनदेखी कर जाते और कुछ पलट कर छिड़क देते थे। किसी ने कटाक्ष किया शरीर क्या टूटा, खोपड़ी भी खिसक गई है। वह द़श्य लगभग विस्मृत हो चुका था। आज याद ताजा हो गई। देश के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ की नियुक्ति को लेकर कांग्रेस ने जिस तरह से राजनीति शुरू की उससे बरबस ही ग्वालियर के उस बीमार और बहुत कमजोर भिक्षु का चेहरा आंखों के सामने घूम गया। लगा, चाहे कमजोरी शारीरिक हो या मानसिक या फिर दोनों, दिल-दिमाग पर काबू नहीं रह पाता। बात-बात पर गुस्सा, चिढ़चिढ़ापन और दूसरों में गलतियां निकालने की प्रवृत्ति हॉवी देखी जाती है। राजनीतिक मंच पर नजर टिकाने पर फिलहाल ये लक्षण कांग्रेस में देखे जा सकते हैं। जनरल बिपिन रावत को चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ (सीडीएस) नियुक्त किए जाने पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया सिरे से अवांछित और गैरजिम्मेदाराना है। राष्ट्र सुरक्षा से जुड़े मसले पर कांग्रेस की ताजा प्रतिक्रिया तमाम मर्यादाओ को मसल कर रख देने जैसी हरकत कही जा सकती है। 
कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं, बहुत अफसोस और पूरी जिम्मेदारी से कहता हृं कि सरकार ने सीडीएस के संदर्भ में पहला ही कदम गलत उठाया है। सरकार के इस फैसले के दुष्प्रभावों के बारे में समय बताएगा। तिवारी को लगता है कि यह फैसला परेशानियों और अस्पष्टताओं से भरा है। उन्होंने लिखा है कि क्या सरकार को तीनों सेनाओं के प्रमुखों से मिलने वाली सलाह से ऊपर सीडीएस का सुझाव होगा? क्या तीनों सेनाओं के प्रमुख रक्षा सचिव की बजाय सीडीएस के माध्यम से रक्षामंत्री को रिपोर्ट करेंगे? लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने एक बार फिर साबित किया है कि विषय की धेले भर जानकारी नहीं होने पर भी अपनी दोदने में वह बेजोड़ हैं। चौधरी ने कहा है कि सरकार ने बिपिन रावत के सभी प्रदर्शन और वैचारिक झुकाव को ध्यान में रखकर उनकी नियुक्ति की है। तिवारी और चौधरी की कांगे्रस में हैसियत को देखते हुए इस तरह की बातों को उनकी व्यक्तिगत राय नहीं मान सकते। निश्चित रूप से उनके विचार उस कांग्रेस के विचार हैं जो इस समय शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से जर्जर हो चुकी है। तिवारी पर भाजपा सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौर ने सोलह आना सही जवाब ठोंका है। राठौर ने कहा, आप संस्थानिक विभाजन कर अपने बॉसेज को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए यह ठीक नहीं है। विभाजन कांग्रेस का पसंदीदा काम है। तिवारी के काम पर उनके बॉस गर्व कर रहे होंगे। 
तिवारी एक अच्छे वकील होंगे, वह वरिष्ठ राजनेता और सांसद भी हैं। इस समय कांग्रेस के बॉसेज के काफी करीबी बताए जाते हैें। इन तमाम योग्यताओं और गुणों के बावजूद यह कैसे मान लिया जाए कि वह सर्वज्ञ हैं। वह सेना, उसकी जरूरतों, उसके  सामने आने वाली चुनौतियों, उसकी समस्याओं के बारे में कितना जानते हैं? यही बात चौधरी के संदर्भ में पूछी जा सकती है। विषयों पर उनकी समझ और ज्ञान की परख हाल के महीनों में कई बार हो चुकी है। तिवारी और चौधरी दोनों के लिए यह निशुल्क परामर्श है कि सीडीएस या अन्य विशेष विषयों पर बोलते या लिखते समय उसके जानकारों और विशेषज्ञों से बात कर लेने से हास्यास्पद स्थिति और पलटवार से बचा सकता है। इस संदर्भ में बिग्रेडियर(रिटायर्ड) बी.डी.मिश्रा के जवाब का उल्लेख करना सही होगा। उन्होंने एक तरह से कांगे्रस को धोकर रख दिया। मिश्रा ने कहा है कि 1962 के भारत-चीन युद्ध, 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध और श्रीलंका में भारतीय शांति सेना के अभियानों में हिस्सा लेने और इतने वर्षों के सैन्य अनुभव और अध्ययन के बाद कह सकता हूं कि मनीष तिवारी से वैचारिक और पेशेवर आधार पर असहमत हूं। 
ऐसा महसूस होता है कि कांग्रेस हड़बड़ी में बगैर तैयारी के सेनापतियों को सियासी जंग झोंक देती है। संभव यह भी है कि वफादारी दिखाने की होड़ में वो खुद उल्टी-सीधी तलवार भांजने लगते हैं। काफी विचार-विमर्श के बाद सीडीएस नियुक्ति का निर्णय लिया गया है। लोकतांत्रिक देशों में सीडीएस का पद राष्ट्रहित और राष्ट्रशक्ति के बीच संतुलन बनाए रखने का काम करता है। भारत ने जितने युद्ध लड़े हैँ, हर बार सीडीएस नियुक्ति की बात अवश्य उठी। सैन्य विशेषज्ञ लगातार सीडीएस की जरूरत पर जोर देते रहे हैं। विचार भी किया गया लेकिन किसी न किसी संकोच या अवरोध के चलते बात आगे नहीं बढ़ सकी। पंडित जवाहरलाल नेहरू 1962 के चीन युद्ध से पहले ही सीडीएस बनाना चाहते थे। तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्णा मेनन के विरोध के कारण वह पीछे हट गए। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी भी मानेकशॉ को फील्ड मार्शल रैंक देकर सीडीएस बनाना चाहतीं थीं। तब वायुसेना और नौसेना प्रमुखों के मतभेद उभरने से विचार ठण्डे बस्ते में चला गया। कारगिल युद्ध के बाद बनी कारगिल रिव्यू कमेटी ने 2000 में सीडीएस बनाने का आधिकारिक प्रस्ताव दिया था। अटल बिहारी वाजपेयी भी यही चाहते थे लेकिन राजनीतिक दलों में एकराय नही बन सकी। अब तक सीडीएस का कमजोर विकल्प चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी ही काम कर रहा था। तीनों सेना प्रमुखों में जो वरिष्ठ होता था वही इसका चेयरमैन होता था। नई व्यवस्था में सीडीएस वह अकेला व्यक्ति होगा जो रक्षा योजनाओं और प्रबंधन में सरकार को सलाह देगा। वह तीनों सेनाओं के बीच समन्वय बनाएगा। पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक कहते हैं कि कारगिल युद्ध में हम ज्वाइंट आपरेशन चाहते थे, कैबिनेट लंबे समय तक मानी नहीं। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब सीडीएस संबंधी घोषणा की तो यह हमारे लिए सरप्राइज थी। इस तरह की मिलती-जुलती व्यवस्था अमेरिका, ब्रिटेन, चीन और फ्रांस में पहले से है। 
सीडीएस की नियुक्ति राष्ट्र सुरक्षा की दिशा में मोदी सरकार द्वारा उठाया गया एक बड़ा कदम है। यद्यपि शीर्ष सैन्य स्तर पर सभी की भूमिका बहुत स्पष्ट है फिर भी कहीं किसी प्रकार की अड़चन आने पर सरकार अवश्य उसे जल्द दूर करेगी। सीडीएस नियुक्ति पर राजनीति सही नहीं कही जा सकती। राष्ट्र संस्थानिक विभाजन जैसी हरकतें बर्दाश्त नहीं करेगा। वैचारिक झुकाव के चलते जनरल रावत को सीडीएस बनाने जैसे आरोप दिमागी सडऩ के अलावा कुछ नहीं है। किसी के संदर्भ मेंं हल्की बातें करने से पहले उसका अतीत, उसकी योग्यता और क्षमताओं जैसी जानकारियां जुटा लेना बुद्धिमानी होती है।