सत्ता के लिए ऐसा- शीर्षासन


वस्तुत: 1989 से ही शिवसेना और भाजपा साथ-साथ चुनाव लड़ते रहे, जिसमें विधानसभा चुनाव में शिवसेना की भूमिका बड़े भाई की होती थी। पर 2014 में नरेन्द्र मोदी की व्यापक लोकप्रियता और लोकसभा चुनावों में भाजपा की भारी सफलता के चलते भाजपा का कहना था कि दोनो ही पार्टिया विधानसभा में बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़े और जिसके ज्यादा विधायक चुनकर आयें उसी का मुख्यमंत्री बने परन्तु शिवसेना बराबर ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की जिद तो पकड़े ही रही, ऐसा भी उद्यम करती रही कि मुख्यमंत्री का उम्मीदवार उद्धव ठाकरे को बनाया जाये। फिर जो कुछ हुआ वह पहले ही बताया जा चुका है। इस बार भी शिवसेना की जिद थी कि दोनो ही पार्टिया बराबर सीटों पर चुनाव लड़े। ऐसी स्थिति में जब दोनो ही दलों की सीटों पर दुगने का अन्तर हो तो यह जिद कतई उचित नहीं कही जा सकती थी। बड़ी कहीकत यह भी कि केन्द्र और राज्य दोनो ही सरकारों में भागीदार होने के बावजूद शिवसेना पूरे 5 वर्ष तक मोदी सरकार पर विषबुझे तीर भी छोड़ती रही। ऐसी स्थिति में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उद्धव ठाकरे को साफ संदेशा भिजवा दिया कि यदि शिवसेना 124 सीटों पर राजी नहीं है तो भाजपा अकेले चुनाव मैदान में जायेगी। उद्धव को पता था कि यदि इस बार भी चुनाव में अकेले गये तो पिछली बार की तुलना में आधी सीटें ही रह जायेंगी। फलत: मन मारकर उन्हें भाजपा को बड़ा भाई मानकर चुनाव मैदान में उतरना पड़ा। पर ऐसा लगता है कि उन्होंने मन में ठान लिया था कि चुनाव नतीजों बाद गुल खिलाना है। 
 उद्धव ठाकरे से यह भी पूँछा जा सकता है कि उनके पिता बाला साहब ठाकरे के पास 1995 में मौका था कि यदि वह खुद मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते थे तो उद्धव ठाकरे को भी इस कुर्सी पर बैठा सकते थे, पर वंशवाद की ऐसी घृणित राजनीति करना न पसन्द करते हुये एक शिवसैनिक मनोहर जोशी को मुख्यमंत्री बनवाया। इतना ही नहीं बाला साहब ठाकरे के रहते उनके खानदान का कोई सदस्य चुनाव भी नहीं लड़ सका। 
 निश्चित रूप से शिवसेना का इन दोनो पार्टियों से गठजोड़ सिद्धान्तहीन ही नहीं बेमेल भी है। जब देश के गृहमंत्री अमित शाह कहते हैं कि जब सम्पूर्ण देश में एनआरसी लागू करेंगे, यानी विदेशी घुसपैठियों की पहचान कर देश से बाहर निकालेंगे। तो स्वाभाविक है कि एनसीपी और कांग्रेस अपनी तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के तहत ऐसे कदमों का विरोध करेंगी पर शिवसेना ऐसे मामलों में जिसकी आक्रामक प्रतिबद्धता होती थी- वह क्या करेगी ? क्या सत्ता के लिए सिद्धान्तो और विचारधारा के साथ समझौता कर उनके साथ खड़ी हो जायेगी। लाख टके का सवाल यह भी क्या कामन सिविल कोर्ट और जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने के मुद्दे पर शिवसेना का रवैया दूसरे धर्मनिरपेक्ष दलों की तरह ही होगा ? फिर तो यह कहना पड़ेगा कि यह कोई और शिवसेना है। कम से कम बाला साहब ठाकरे की शिवसेना तो नहीं ही कहा जा सकता। दूसरी बड़ी बात यह भी कि जो कांग्रेस पार्टी का इतिहास है उसमें वह कहाँ तक शिवसेना को ढ़ो पायेगी, कहपाना कठिन है। जहाँ तक भाजपा का सवाल है, उसे संघ प्रमुख मोहन भागवत की नसीहत मानते हुये फिलहाल विपक्ष में बैठकर जनता की सेवा करनी चाहिए। 
 शिवसेना की हालात तो तब देखने लायक थी जब केन्द्र सरकार संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक लेकर आई। जिसमें पाकिस्तान, बाग्लादेश और अफगानिस्तान से आए सभी गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान है। वस्तुत: यह विधेयक उपरोक्त देशो में मूलत: हिन्दुओं को प्रताडना और अत्याचार के चलते लाया गया। लेकिन हिन्दुत्व की राजनीति करने का दावा करने वाली शिवसेना मोदी सरकार पर वोट बैंक की राजनीति करने का आरोप लगाकर इस विधेयक के विरोध में मत देने का बहाने खोजने लगी। बावजूद इसके लोकसभा में तो उसने किसी तरह से इस विधेयक के विधेयक के पक्ष में मत तो दिया। कही इस भय से कि अपने समर्थकों और मतदाताओं का विश्वास पूरी तरह खो न दे। पर जब सोनिया गांधी ने इस पर घुड़की देते हुये महाराष्ट्र में सरकार से समर्थन वापस लेने की बात कही तो सत्ता जाने के भय से शिवसेना ने राज्यसभा में इस बिल के मतदान के वक्त वाकआउट कर दिया। अब यह बिल जब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद अधिनियम बन चुका है और कांग्रेस कह रही है कि इस अधिनियम को महाराष्ट्र में नहीं लागू होने देंगे। ऐसी स्थिति में शिवसेना को किन विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ेगा- समझा जा सकता है। इधर सावरकर को लेकर भी अजीब स्थिति है, कभी एक कांग्रेसी नेता द्वारा सावरकर के विरूद्ध अपशब्दों का प्रयोग करने पर ऊधव ने उसको जूते लगाने की बात की थी। अब जब राहुल गांधी जब सावरकर के बारे में अवमाननापूर्ण बाते करते हैं तो शिवसेना औपचारिक विरोध दर्ज कराकर चुप हो जाती है। कुल मिलाकर सत्ता की अंध आकाक्षा के चलते शिवसेना की स्थिति- ”भइ गति सांप-छछुन्दर केरी, उगलत लीलत प्रीति घनेरी।“ बाली हो गई है। 
 हद तो यह है कि जामिया मिलिया विश्व विद्यालय दिल्ली के छात्रों पर दिल्ली पुलिस के लाठीचार्ज की तुलना उद्धव ठाकरे ने जलियावाला बाग की घटना से कर दी। जलिया वाला बाग की घटना में निहत्थें भारतीयों पर ब्रिटिक पुलिस द्वारा अंधाधुध गोलियां ऐसी जगह बरसाई गई थी, जहाँ से कोई भागने तक का रास्ता नहीं था। एक तरह से यह सामूहिक हत्याकाण्ड था। पर जामिया मिलिया की बात पूरी तरह अलग है। यहाँ जमिया मिलिया के छात्रों द्वारा कैब के विरोध में हिंसा की गई। कई वाहनों का जलाया गया, उसमें बैठे यात्रियों से मारपीट की गई। पुलिस को पत्थरवाजी का शिकार होना पड़ा। यह बात और है कि इसमें छात्रों के साथ बाहरी गुण्डे एवं आपराधिक तत्व भी शरीक थे। फिर जामिया मिलिया में किसी के मरने की बात तो दूर है, पुलिस द्वारा एक गोली तक नहीं चलाई गई। पर उद्धव को दोनो घटनाएं एक जैसी मालुम पड़ती हैं, जरा सोचिए यदि उद्धव एन.सी.पी. और कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री न बने होते तो यही कहते- हिंसा करने वालों के साथ पूरी तरह सख्ती बरतनी चाहिए ? लेकिन ऐसा लगता है कि उद्धव और उनकी शिवसेना को जिसको बहुत से लोग शव सेना तो कुछ लोग अफजल सेना कह रहे हैं, तभी तो वह जिन हिन्दुत्व के मुद्दो पर आक्रामक रवैया रखते थे, वहीं उनको लेकर भाजपा पर वोट बैंक की राजनीति का आरोप लगाने लगे हैं। सत्ता के घनचक्कर में यू-टर्न लेना तो छोटी बात है, वह शीर्षासन करने की मुद्रा में आ गए हैं।
ईएमएस/04/01/2020