दिल्ली के लाक्षागृहों में खाक होती मासूम जिंदगियां
दिल्ली में आगजनी की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही। बीते 8 दिसम्बर को दिल्ली के अनाज मंडी इलाके में भयावह अग्निकांड में हुई 46 मौतों के सदमे से दिल्ली अभी तक उबरी भी नहीं थी कि 20 दिनों के भीतर पांच और ऐसे ही अग्निकांडों ने न केवल हर किसी को अंदर तक झकझोर दिया है बल्कि सभी जिम्मेदार संस्थाओं पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं। 22 दिसम्बर की रात दिल्ली के किराड़ी इलाके में इंदर एनक्लेव में एक चार मंजिला इमारत के निचले हिस्से में बने कपड़ों के गोदाम में लगी आग ने पूरी इमारत को अपनी चपेट में ले लिया और देखते ही देखते यह आग 9 मासूम लोगों का काल बन गई। उसके दो ही दिन बाद 24 दिसम्बर को दिल्ली के नरेला इलाके में तीन फैक्टरियों में आग लग गई, जिसे बुझाने में 36 दमकल वाहनों की मदद से करीब 150 दकमलकर्मियों को सात घंटों तक कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। 27 दिसम्बर को सदर बाजार इलाके में एक इमारत में, महारानी बाग क्षेत्र में एक दुकान में तथा वसंत विहार इलाके में एक आवासीय इमारत में भीषण आग लग गई, जिसे दमकलकर्मियों ने कई घंटों की जद्दोजहद के बाद बुझाया। गनीमत यह रही कि आगजनी के इन हादसों में कोई हताहत नहीं हुआ। इससे पहले 8 दिसम्बर को अनाज मंडी इलाके में एक मकान में बहुमंजिला इमारत में चल रही फैक्टरी में लगी भयानक आग में 46 लोगों की मौत हो गई थी।
कितनी बड़ी विड़म्बना है कि दिल्ली में बार-बार ऐसे अग्निकांड सामने आते रहे हैं और लोग लाक्षागृह बनी ऐसी इमारतों में जलकर राख होते रहे हैं लेकिन ऐसे हादसों से कभी कोई सबक नहीं लिया जाता। दिल्ली में ऐसे अनेक इलाके हैं, जहां संकरी गलियों में अनेक फैक्टरियां या कारखाने चल रहे हैं और यह सब प्रशासन की नाक तले होता है। ऐसी लगभग तमाम औद्योगिक इकाईयों में आग से बचने के कोई इंतजाम नहीं होते लेकिन बार-बार होते ऐसे हादसों के बावजूद अगर उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती तो भला उसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? अक्सर यही देखा गया है कि दिल्ली में अग्निकांड की घटनाएं हों या बहुमंजिला इमारतें गिरकर उनके तले दबकर मासूम लोगों के मारे जाने की, ऐसी दर्दनाक घटनाओं में प्रायः पीडि़तों को मुआवजा देने की घोषाणाएं कर सरकारों द्वारा अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है और भविष्य में ऐसी घटनाएं दोबारा न हों, इसकी ओर से सब बेपरवाह हो जाते हैं। जब भी ऐसा कोई हादसा सामने आता है, तब ऐसी अव्यवस्थाओं पर खूब हो-हल्ला मचता है लेकिन चंद दिन बीतते-बीतते सब शांत हो जाता है और सारी व्यवस्था पुराने ढ़र्रे पर पूर्ववत रेंगने लगती है। ऐसे में गंभीर सवाल यही उठता है कि दिल्ली के इन अग्निकांडों का जिम्मेदार आखिर कौन है और कब तक ऐसे अग्निकांडों में जान-माल की बलि चढ़ती रहेगी? आखिर क्यों 'मौत की नगरी' बनती जा रही है दिल्ली? संकरी गलियों में ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच बिजली की हाई वोल्टेज तारों का मकड़जाल भी बड़े हादसों को न्यौता देता प्रतीत होता रहा है।
कहना असंगत नहीं होगा कि अगर अनाज मंडी इलाके के अग्निकांड में हुई 46 मौतों से कोई सबक लिया जाता और दिल्ली में अवैध रूप से बनी इमारतों तथा संकरी गलियों में चल रही अवैध फैक्टरियों पर लगाम कसने की कवायद शुरू कर दी गई होती तो शायद 22 और 24 दिसम्बर के हादसों से बचा जा सकता था। दिल्ली के कई इलाकों में तमाम नियम-कायदों की धज्जियां उड़ाते कुकुरमुत्ते की भांति अवैध कारखाने फैले हैं, जहां हल्की सी चिंगारी को भी दावानल बनते देर नहीं लगती लेकिन शायद गहरी नींद में सोये अधिकारियों ने सोचा हो कि 8 दिसम्बर को घटी घटना के बाद अभी इतनी जल्दी कोई और घटना तो घटने वाली है नहीं, इसलिए क्यों ऐसे कारखानों पर लगाम लगाने के लिए बेवजह की जद्दोजहद की जाए। विड़म्बना है कि 1997 के उपहार सिनेमा की भीषण आग में खाक हुई 59 मासूम जिंदगियों की त्रासदी के बाद के इन 22 वर्षों में किसी ने कोई सबक सीखा। ऐसे हादसों के बाद अक्सर यही तथ्य सामने आते रहे हैं कि हादसाग्रस्त कारखानों वाली इमारतों में आग से बचने के कोई उपकरण नहीं थे और फिर भी वे धड़ल्ले से चल रहे थे।
कोई भी बड़ा हादसा होने के बाद मुख्यमंत्री, मंत्री तथा तमाम राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नेता घटनास्थल पर पहुंचते हैं और मीडिया से मुखातिब होकर एक-दूसरे पर अपनी भड़ास निकालने के बाद वहां से खिसक लेते हैं। ऐसे अग्निकांडों में मासूम लोगों की मौत के बाद राजनीतिक दलों द्वारा एक-दूसरे पर दोषारोपण का घृणित दौर शुरू होता है लेकिन हकीकत यही है कि अगर इन्हीं लोगों ने नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए धड़ल्ले से चल रहे कारखानों पर सख्त कदम उठाने की पहल की होती तो ऐसे हादसे होते ही नहीं। बार-बार हो रहे ऐसे दर्दनाक हादसों के बाद भी इस बात का जवाब कहीं से नहीं मिलता कि आखिर संकरी गलियों में चल रहे अवैध कारखानों पर लगाम कब और कैसे लगेगी और जिम्मेदार अधिकारियों को दंडित करने के लिए सख्त कदम कब उठाए जाएंगे? सवाल यह भी है कि ऐसी संकरी गलियों में 4-5 मंजिला इमारतें कैसे बन गई और कैसे उनमें बिजली के मीटर लग गए? कैसे उन आवासीय इमारतों के भीतर औद्योगिक कारखाने स्थापित करने की इजाजत मिल गई? फायर विभाग के अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं होने के बावजूद अगर धड़ल्ले से ऐसे कारखाने दिल्ली के अनेक इलाकों में चल रहे हैं तो उसकी जिम्मेदारी आखिर किसकी है? बहुत से ऐसे कारखाने भी हैं, जिन्हें फायर विभाग के अनापत्ति प्रमाण पत्र तो मिले हुए हैं लेकिन उनके पास आग बुझाने के जरूरी उपकरण ही नहीं हैं। आखिर उन्हें फायर विभाग द्वारा अनापत्ति प्रमाण पत्र कैसे दे दिए गए? जवाब बिल्कुल सीधा और स्पष्ट है कि यह सब प्रशासन और कारोबारियों की मिलीभगत तथा भ्रष्ट मंसूबों की ही देन है। ऐसे में बेहद गंभीर सवाल यही उठता है कि हमारे देश में लोगों की जान क्या इतनी सस्ती है कि सिस्टम इस तरह उनकी जिंदगी के साथ खेलता है? इसी का ताजा उदाहरण है 8 दिसम्बर को हुए अग्निकांड में 43 लोगों की मौत के बाद 22 दिसम्बर के अग्निकांड में हुुई 9 लोगों की दर्दनाक मौतें।
इस तरह का हर बड़ा हादसा हमें सबक के साथ-साथ कड़वे अनुभव भी देकर जाता है लेकिन विड़म्बना यही है कि हमारे यहां ऐसे हादसों या गलतियों से कभी कोई सबक नहीं लिया जाता। ऐसे हादसों में एक ही पल में कितने ही परिवारों के घर के चिराग बुझ जाते हैं। लोगों के स्मृति पटल में वर्ष 1997 का 'उपहार कांड' अब तक तरोताजा है, जो दिल्ली का अब तक का सबसे खौफनाक अग्निकांड माना जाता है। 13 जून 1997 को उपहार सिनेमा में लगी उस आग में 59 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी। हादसे के वक्त उपहार सिनेमा में सैंकड़ों लोग 'बॉर्डर' फिल्म देख रहे थे और सिनेमा हॉल में आग लगने के बाद उन्हीं में से 59 लोग मारे गए थे। आग लगने के बाद सिनेमा हॉल में धुआं भर गया था, जिसके बाद लोग वहां से निकल भागने की कोशिश तो कर रहे थे किन्तु उनकी बदनसीबी यह थी कि उपहार सिनेमा के सभी दरवाजे बाहर से बंद थे। आखिर सिनेमा हाल के ही भीतर 59 लोगों ने आग की चपेट में आकर और धुएं से दम घुटने के कारण दम तोड़ दिया था। उपहार कांड के बाद से लेकर अब तक दिल्ली में भीषण आगजनी की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। उस भयावह हादसे को बीते 22 वर्ष लंबा समय गुजर चुका है किन्तु आज भी विड़म्बनापूर्ण स्थिति यह है कि इस दिशा में एक-दूसरे पर दोष मढ़ने के अलावा कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया जाता। इस वास्तविकता से कोई अनजान नहीं है कि दिल्ली के अनेक इलाकों में बरसों से बहुत सारी अवैध फैक्टरियां चल रही हैं, जिनमें सुरक्षा के कोई उपाय नहीं होते। तमाम जिम्मेदार सरकारी विभागों को ऐसी फैक्टरियों की पूरी जानकारी भी होती है लेकिन कोई ऐसे कदम नहीं उठाए जाते, जिससे ऐसे दर्दनाक हादसों को टाला जा सके।
इसी साल 12 फरवरी को करोलबाग के होटल अर्पित में लगी भयानक आग में 17 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी और तब यह खुलासा हुआ था कि करोलबाग के उस इलाके में चार मंजिल से ज्यादा नहीं बनाई जा सकती किन्तु उस होटल को भ्रष्ट अधिकारियों के संरक्षण के चलते छह मंजिला बनाया गया था। दिल्ली में जगह-जगह ऐसे ही न जाने कितने होटल अर्पित या अवैध फैक्टरियां चल रही हैं, जो हर कदम पर बड़े हादसों को न्यौता दे रहे हैं लेकिन न जाने प्रशासन की तंद्रा कब टूटेगी? कोई बड़ा हादसा होने के बाद जब थोड़े दिन मामला गर्म रहता है तो अक्सर सामने आता है कि जिन होटलों, रेस्टोरेंट तथा फैक्टरियों को अग्निशमन विभाग द्वारा एनओसी दी गई, उनमें से कईयों में आग बुझाने वाले उपकरण काम ही नहीं कर रहे थे। दिल्ली के विभिन्न आवासीय क्षेत्रों में ऐसी घटनाओं में अक्सर अवैध फैक्टरियां चलने तथा सिनेमाघरों, होटलों, रेस्टोरेंट इत्यादि में आग से सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम के अभाव की बातें सामने आती रही हैं लेकिन प्रशासन हमेशा किसी बड़े हादसे को न्यौता देता प्रतीत होता है। कोई बड़ा हादसा सामने आने पर सारी एजेंसियां एकाएक गहरी नींद से जाग जाती हैं लेकिन जैसे ही मामला थोड़ा ठंडा पड़ता है, सब कुछ पुराने ढ़र्रे पर रेंगने लगता है और फिर से तमाम एजेंसियां किसी दूसरी घटना के इंतजार में गहरी नींद सो जाती हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही उठ खड़ा होता है कि मौत की नगरी बनती जा रही दिल्ली में आखिर कब तक रह-रहकर इसी प्रकार के भयानक हादसे सामने आते रहेंगे और हम अपनी बेबसी पर आंसू बहाते रहेंगे। सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ आम लोगों और नागरिक संस्थाओं का भी दायित्व है कि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए वे स्वयं भी अपने कर्त्तव्यों के प्रति ईमानदार और जागरूक रहें।