आत्महत्या दे रही चिंता


नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2018 में किसानों से ज्यादा बेरोजगारों ने आत्महत्या की। 2018 में 12 हजार 936 लोगों ने बेरोजगारी के कारण आत्महत्या की। इसी अवधि में कुल 10 हजार 349 किसानों ने आत्महत्या की। केरल में 1585, तमिलनाडु में 1579, महाराष्ट्र में 1260, कर्नाटक में 1094 और उत्तर प्रदेश में 902 लोगों ने बेरोजगारी की कारण आत्महत्या की। दूसरी ओर देश में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है। खेती का संकट व्यापक है और इसकी चपेट में अनेक राज्यों के किसान आ गए हैं। यही वजह है कि आर्थिक कारणों से अब तक सैकड़ों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह सिलसिला अब थोड़ा थमा है। 2018 में 10 हजार 349 किसानों ने आत्महत्या की है।
 दरअसल, अवसाद और आत्महत्याएं नए दौर की महामारी के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। अवसाद ग्रसित कई लोग आत्महत्या जैसा रास्ता चुन लेते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल निराशा और अवसाद से पीडि़त भारत में ही हों। सबसे विकसित देश अमेरिका में सबसे अधिक लोग अवसाद से पीडि़त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 7.5 फीसद लोग किसी-न-किसी तरह के मानसिक अवसाद से पीडि़त हैं, लेकिन भारत में अवसाद कोई बीमारी नहीं माना जाता और इसके इलाज पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। इलाज तो दूर पीड़ित व्यक्ति की मदद करने के बजाय लोग उसका उपहास उड़ाते हैं। कई बार तो तो मानसिक रूप से असंतुलित महिला को डायन बता कर मार दिया जाता है। झारखंड में अक्सर मामले सामने आते हैं। बीमारी का इलाज कराने के बजाय पढ़े-लिखे लोग भी झाड़ फूंक के चक्कर में फंस जाते हैं।
बहरहाल, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने देश में आत्महत्या के जो आंकड़े जारी किए हैं, वे चिंताजनक हैं। किसी भी समाज और देश के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है। कोई भी शख्स आत्महत्या को आखिरी विकल्प क्यों मान रहा है? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में आत्महत्या के मामलों में 3.6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और औसतन देश में हर दो घंटे में तीन लोग जान दे रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में कुल एक लाख 34 हजार 516 लोगों ने खुदकुशी की, जो 2017 के एक लाख 29 हजार 887 आत्महत्या के मामलों के मुकाबले 3.6 फीसदी अधिक है। आत्महत्या के सबसे अधिक मामले महाराष्ट्र 17 हजार 972 में दर्ज किए गए। दूसरे स्थान पर तमिलनाडु 13 हजार 896 है और तीसरे पर पश्चिम बंगाल 13 हजार 255 है। इसके बाद मध्य प्रदेश 11 हजार 775 और कर्नाटक 11 हजार 561 है।
जब भी देश में बोर्ड के नतीजे आते हैं और कई बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें सामने आती हैं। ये खबरें साल-दर-साल आ रही हैं। इस समस्या का कोई हल निकलता हुआ नजर नहीं आ रहा है। दरअसल, मौजूदा दौर की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता की असीमित अपेक्षाओं के कारण बच्चों को जीवन में भारी मानसिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है। बेटियां तो और भावुक होती हैं। दूसरी ओर माता-पिता के साथ संवादहीनता बढ़ रही है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां बच्चे परिवार, स्कूल और कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते हैं और तनाव का शिकार हो जाते हैं। हमारी व्यवस्था ने उनके जीवन में अब सिर्फ पढ़ाई को ही रख छोड़ा है। 
रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है। दूसरी ओर माता-पिता के पास वक्त ही नहीं है, उनकी अपनी समस्याएं हैं। नौकरी व कारोबार की व्यस्तताएं हैं, उसका तनाव है। जहां पर मां नौकरीपेशा है, वहां संवादहीनता की स्थिति और गंभीर है। एक और वजह है। भारत में परंपरागत संयुक्त परिवार का तानाबाना टूटता जा रहा है। परिवार एकाकी हो गए हैं और नई व्यवस्था में बच्चों को बाबा-दादी, नाना-नानी का सहारा नहीं मिल पाता है, जबकि कठिन वक्त में उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। यही वजह है कि अनेक बच्चे आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम उठा लेते हैं। परीक्षा परिणामों के बाद हर साल अखबार मुहिम चलाते हैं। बोर्ड और सामाजिक संगठन हेल्प लाइन चलाते हैं, लेकिन छात्र-छात्राओं की आत्महत्या के मामले रुक नहीं रहे हैं। जाहिर है कि ये प्रयास नाकाफी हैं।