नागरिकता के फर्जी मुद्दे पर फंसी भाजपा

कोई कानून हमारी संसद स्पष्ट बहुमत से बनाए और उस पर इतना देशव्यापी हंगामा होने लगे, ऐसा मुझे कभी याद नहीं पड़ता। संसद के दोनों सदनों ने नागरिकता संशोधन विधेयक पारित किया, जिसके अनुसार पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आनेवाले शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी। लेकिन यह नागरिकता सिर्फ हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों को दी जाएगी। इन देशों के मुसलमानों को नहीं दी जाएगी ? क्योंकि हमारी सरकार का दावा है कि इन पड़ौसी मुस्लिम देशों के उक्त अल्पसंख्यकों पर काफी अत्याचार होते हैं। उन्हें शरण देना भारत का धर्म है, कर्तव्य है, फर्ज है। इसी फर्ज को निभाने के लिए मोदी सरकार ने यह नया कानून बनाया है।
इसमें शक नहीं कि शरणार्थियों को शरण देना किसी भी सभ्य देश का कर्तव्य है। इस दृष्टि से यह कानून सराहनीय है लेकिन शरण देने के लिए जो शर्त रखी गई है, वह अधूरी है, अस्पष्ट है और भ्रामक है। भारतीय नागरिकता देने की शर्त यह है कि इन पड़ौसी इस्लामी देशों में गैर-मुस्लिमों पर अत्याचार होता है। मान लें कि यह आरोप सही है तो क्या उसका एक मात्र इलाज यही है कि धार्मिक अत्याचार के बहाने जो भी भारत पर लदना चाहे, उसे हम लाद लें ? भारत आनेवाले इन लाखों लोगों में से आप कैसे तय करेंगे कि कितने लोग धार्मिक उत्पीड़न के कारण शरण मांग रहे हैं ? हो सकता है कि वे बेहतर काम-धंधों के लालच में आए हों, भारत के जरिए अमेरिका और यूरोप जाने के लिए आए हों, अपने रिश्तेदारों के साथ रहने आए हों या उन सरकारों के लिए जासूसी करने के लिए भेजे गए हों। उनके पास तुरुप का बस एक ही पत्ता है कि वे मुसलमान नहीं है। बस, उनकी गाड़ी पार है। हम धार्मिक उत्पीड़न के बहाने भारत को दक्षिण एशिया का अनाथालय क्यों बना देना चाहते हैं ? इसी कारण पूर्वोत्तर के प्रांतों में बगावत की आग भड़की हुई है। 
मूल प्रश्न यह है कि उत्पीड़न क्या सिर्फ धार्मिक होता है ? यदि यह सही होता तो 1971 में बांग्लादेश से लगभग एक करोड़ मुसलमान भागकर भारत क्यों आ गए थे ? पाकिस्तान के अहमदिया, शिया, बलूच, सिंधी और पठान लोग क्या मुसलमान नहीं हैं ? वे भागकर अफगानिस्तान, भारत और पश्चिमी देशों में क्यों जाते हैं ? क्या अफगानिस्तान के शिया, हजारा, मू-ए-सुर्ख, परचमी और  खल्की लोग मुसलमान नहीं हैं ? वे वहां से क्यों भागते रहे ? इन तीनों देशों से बाहर भागनेवाले लोगों में हिंदू कम और मुसलमान बहुत ज्यादा क्यों हैं ? अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणा-पत्र और शरणार्थी अभिसमय के अनुसार कोई भी व्यक्ति सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न ही नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आनुवांशिक उत्पीड़न से त्रस्त होने पर शरण पाने का अधिकारी होता है। इसीलिए हमारा यह नागरिकता संशोधन कानून अधूरा है। 
यह कानून सपाट भी है। यह सिर्फ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों की ही चिंता करता है। क्यों करता है ? क्योंकि 1947 में बहुत-से गैर-मुस्लिम इन देशों में रह गए थे। वे मूलतः भारतीय ही हैं। यहां पहला सवाल है कि क्या 1947 में अफगानिस्तान भारत का हिस्सा था ?  यदि नहीं तो उसे क्यों जोड़ा गया ? यदि उसे जोड़ा गया तो बर्मा, भूटान, श्रीलंका और नेपाल को क्यों छोड़ा गया ? बर्मा और श्रीलंका तो ब्रिटिश भारत के अंग ही थे। इन देशों के हजारों-लाखों गैर-मुस्लिम शरणार्थी भारत आते रहे हैं। उनमें तमिल, मुस्लिम, ईसाई और हिंदू शरणार्थी भी हैं। दुनिया के पचासों देशों में बसे दो करोड़ प्रवासी भारतीयों पर कभी संकट आया तो वे क्या करेंगे ?
यह ठीक है कि इस नए नागरिकता कानून से भारतीय मुसलमान नागरिकों को कोई नुकसान नहीं है लेकिन उन्हें क्या हुआ है ? वे क्यों भड़क उठे हैं ? क्योंकि इस कानून के पीछे छिपी सांप्रदायिकता दहाड़ मार-मारकर चिल्ला रही है। भाजपा ने अपने आप को मुसलमान-विरोधी घोषित कर दिया है। भाजपा जब विपक्ष में थी, तब वोट पाने के लिए यह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण समझ में आता था। चुनावी घोषणा-पत्र में इसे डाल दिया गया था लेकिन आप अब सत्ता में हैं। किसे नागरिकता देना, किसे नहीं, यह आपके हाथ में है। इसके लिए गुण-दोष का शुद्ध और निष्पक्ष पैमाना लगाइए और बिना किसी भेद-भाव के नागरिकता दीजिए या मत दीजिए।  मेरी राय में यही सच्ची हिंदुत्व दृष्टि है।
यदि हिंदुओं के वोट-बैंक को मजबूत करने के लिए यह पैंतरा मारा गया है तो बंगाल, असम, त्रिपुरा और पूर्वोतर के अन्य प्रांतों में सारे हिंदू क्यों भड़के हुए हैं ? वहां की भाजपा सरकारें क्यों हतप्रभ हैं ? यह ठीक है कि इन प्रांतों के कुछ जिलों में शरणार्थी वर्जित हैं लेकिन अभी भी राष्ट्रीय नागरिकता सूची तैयार की गई है, उसमें से 19 लाख लोग बाहर कर दिए गए। उनमें से 11 लाख हिंदू बंगाली हैं। इन सीमांत प्रदेशों में से भाजपा का सूंपड़ा साफ होने की पूरी आशंका है। यह देश का दुर्भाग्य है कि पूर्वी सीमांत के प्रांतों में कोई भी अखिल भारतीय पार्टी जम नहीं पा रही है। भाजपा के इस कानून ने देश के परस्पर विरोधी दलों को भी एकजुट कर दिया है।
यह कानून बनाते समय सरकार और हमारे सांसदों ने यह भी ठीक से नहीं सोचा कि इससे अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत की प्रतिष्ठा को कितनी ठेस पहुंचेगी। इस कानून के कारण मचे कोहराम के चलते गुवाहाटी में आयोजित भारतीय और जापानी प्रधानमंत्रियों की भेंट रद्द करनी पड़ गई। अमेरिकी सरकार और संयुक्तराष्ट्र के मानव अधिकार आयोग ने हमारे इस कदम की कड़ी आलोचना की है। पाकिस्तान के एक हिंदू सांसद और एक हिंदू विधायक ने इस कानून को वहां के हिंदुओं के लिए हानिकारक बताया है। बांग्लादेश, जो कि भारत का अभिन्न मित्र है, इस कानून से बहुत परेशान है। उसके विदेश मंत्री और गृहमंत्री ने अपनी भारत-यात्रा स्थगित कर दी है। इमरान खान इस कानून की निंदा करें, इसमें कोई अचरज नहीं है। मुझे डर यह है कि कहीं अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और प्रधानमंत्री डाॅ. अब्दुल्ला भी भारत की आलोचना न करने लगें। भाजपा ने यह कानून लाकर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान को, जो कई मामलों में परस्पर विरोधी हैं, एकजुट कर दिया है। कहीं ये तीनों देश अपने यहां भारत-जैसा कोई जवाबी कानून ही पास न कर दें। याने वे भारत के अल्पसंख्यकों- मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और दलितों को नागरिकता सहर्ष देने का कानून न बना दें। दुनिया में उनकी जितनी बदनामी होगी, उतनी ही हमारी भी होने लगेगी।
यदि भाजपा सरकार भारत में जनसंख्या का धार्मिक अनुपात सही करना चाहती है, जो कि उचित है तो उसे चाहिए कि वह 'हम दो और हमारे दो' का सख्त कानून बनाए। उसका उल्लंघन करनेवालों का जीना भारत में फिर आसान नहीं होगा। मेरा राय में सरकार में इतना साहस और आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह इस कानून को वापस ले ले। इस फर्जी मुद्दे पर देश का समय बर्बाद करने की बजाय हमारे राजनीतिक दल देश की आर्थिक स्थिति को डावांडोल होने से बचाएं तो बेहतर होगा। यदि सर्वोच्च न्यायालय इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दे तो वह भारत को इस निरर्थक और फर्जी संकट से बचा सकता है।