महिलाओं की सुरक्षा की चिंता

हैदराबाद रेप कांड के बाद पूरा देश गुस्से में है और सड़क से लेकर संसद तक में महिलाओं की सुरक्षा की चिंता की जा रही है। कई राज्य सरकारों ने अपने यहां सख्त कानून बनाने की बात की है, तो केंद्र सरकार मौजूदा कानून में बदलाव करने को तैयार है। यह सारी कवायद अभी देशभर में बलात्कार के खिलाफ उठे गुस्से के ज्वार की ही परिणति है, वरना हमारी सरकारों को महिलाओं की सुरक्षा को लेकर न कोई वास्ता है और न ही उनमें गंभीरता का बोध। हाल ही में संसद में सरकार द्वारा पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक, निर्भया फंड का गठन सरकारी एजेंसियों द्वारा महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों से निपटने में मदद करने के लिए पांच साल से अधिक समय के लिए किया गया था। दिल्ली में दिसंबर 2012 में एक पैरामेडिकल छात्रा के सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद इसका गठन किया गया था। ये एक ऐसी घटना थी जिसको लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए और बलात्कार विरोधी कानूनों को सख्त बनाया गया। महिला और बाल मामलों के (डब्ल्यूसीडी) मंत्रालय, सड़क परिवहन मंत्रालय और रेलवे मंत्रालय द्वारा दिए गए धन के लिए, उपयोग समान अवधि में क्रमश: 20, 25 और 15 फीसदी है। गृह मंत्रालय द्वारा पिछले पांच वर्षों में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जारी किए गए धन का केवल 20 फीसदी से अधिक का उपयोग किया गया है।
निर्भया फंड के तहत, डब्लूसीडी मंत्रालय ने 2013-14 और 2014-15 में 1,000 करोड़ रुपए आवंटित किए। 2016-17 और 2017-18 के लिए, आवंटन 550 करोड़ रुपए था। 2018-19 और 2019-20 में यह आंकड़ा 500 करोड़ रुपए था। जबकि केंद्र निधि से राज्यों को धन आवंटित करता है, राज्य इसे महिलाओं की सुरक्षा के लिए खर्च करते हैं।
पंजाब को एक योजना के तहत 1185.37 लाख रुपए आवंटित किए गए थे, जो 2014 और 2019 की अवधि के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं के लिए वन-स्टॉप निवारण विंडो प्रदान करता है। इसने केवल 65.62 लाख का उपयोग प्रमाणपत्र दिखाया। एनडीए सरकार के तहत गृह मंत्रालय ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को पिछले पांच वर्षों में 1,656.71 करोड़ रुपए जारी किए हैं। उनमें से, राज्यों द्वारा केवल 146.98 करोड़ रुपए का उपयोग प्रमाण पत्र दिया गया है। यह सुनिश्चित करने के लिए, एमएचए के तहत 13 परियोजनाओं में से सिर्फ नौ के लिए प्रमाण पत्र दायर किए गए थे। यह हाल तो महिलाओं की सुरक्षा का दुुरुस्त करने का है, जहां सरकारें नाकाम रहीं। 
न्याय के स्तर पर भी हालात कुछ बेहतर नहीं हंै। दुष्कर्म जैसे जघन्य वारदात पर हर बार पूरे देश मे कोहराम मचता है। सरकार संवेदना जाहिर करती है। संसद में शोर मचता है, लेकिन सुस्त जांच प्रक्रिया, लंबित मामलों और बेहद कम सजा की दर अपराधियों का हौसला बढ़ा रही है। एनसीआरबी रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2017 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए सजा की दर 24.5 फीसदी रही। दिल्ली में यह दर 35 फीसदी रही। जबकि गुजरात और पश्चिम बंगाल इस मामले में सबसे खराब रहे। यहां सजा की दर 3.1 और 3.2 प्रतिशत रही। वर्ष 2017 में बलात्कार के 32,599 मामले दर्ज किए गए, जिसमें बच्ची/बच्चे की संख्या 10,221 थी। हालांकि, यह 2013 की तुलना में काफी कम है। 2013 में 33,707 मामले दर्ज हुए थे। 
कायदे से देखा जाए तो महिलाओं के विरुद्ध अपराध रोकने के लिए कठोर कानून ही पर्याप्त नही हैं। इन्हें अमल में लाने के लिए जांच प्रक्रिया में तेजी, सबूत इकट्ठा करने के लिए पर्याप्त आधारभूत संरचना और न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत करने की भी जरूरत है। निर्भया मामले के बाद कानून तो कठोर हुआ, लेकिन ज्यादातर अपराध के मामलों की जांच सुस्त रही। इसकी वजह से सही समय में सजा नही दिलाई जा सकी।
फिर फोरेंसिक लैब की कमी जांच में देरी की एक बड़ी वजह है। वन स्टॉप सेंटर बनाए जा रहे हैं, वहां विशेषज्ञों की कमी है। सैकड़ों की संख्या में प्रस्ताव भी लंबित हैं। देश के सिर्फ तीन फोरेंसिक लैब में डीएनए सैंपल के जांच की सुविधा है। ये लैब चंडीगढ़, हैदराबाद और कोलकाता में मौजूद हैं। नए फोरेंसिक लैब बनाए जा रहे हैं लेकिन विशेषज्ञों की कमी महसूस की जा रही है। महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों में 2015 के मुकाबले 2016 में 2.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। हालिया रिपोर्ट के अनुसार पति या किसी रिश्तेदार द्वारा की गई क्रूरता की श्रेणी में 33.2 फीसदी मामले दर्ज किए गए। वहीं किसी महिला के शील को नुकसान पहुंचाने के इरादे से किया गया अत्याचार के मामले 27.3 प्रतिशत दर्ज किए गए। यह ऐसी दिक्कतें हैं, जिन्हें दूर करना हमारे हाथ में है। माना कि हर महिला के पीछे एक पुलिसकर्मी नहीं लगाया जा सकता, मगर सरकारें समाज को यह भरोसा तो दिला सकती हैं कि सड़क पर महिलाओं की सुरक्षा को लेकर किसी तरह की कोताही नहीं बरती जाएगी।