गिरते मूल्य, बिखरता तंत्र


पहले बलात्कार फिर नृशंस हत्या, जलाने की यह कोई पहली घटना नहीं है, उससे पहले भी इसी तरह की कई वीभत्स घटनाऐं महिलाओं के साथ घटी है लेकिन कुछ दिन धरना, प्रदर्शन, केन्डल मार्च, नारे, टी.वी. सेट पर शब्दों की जुगाली, तो कुछ आदर्श, तो कुछ छींटाकशी, तो कुछ धर्म जाति से जोड़ उसे केवल और केवल राजनीतिक रंग देने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगाते है। अब तो ऐसे लोगों के लिए शब्द भी न केवल छोटे पड़ने लगे है बल्कि चेतना शून्य समाज निःशब्द हैं। आज समूचा तंत्र ही दिशाहीन हो ध्वस्त हो रहा है, आज हर माँ अपनी बच्ची को ले आशंकित है, डरी हुई है। निःसंदेह हम चाहते तो बहुत कुछ है लेकिन नतीजा केवल हर बार की तरह शून्य ही रहता हैं। यह भी एक दुःखद पहलू है कि सभी महिलाएं एक मत भी नहीं होती, कोई मानवाधिकार से, तो कोई पार्टी से बंधी हुई है, कुल बटी हुई है।
यहाँ कुछ मूलभूत यक्ष प्रश्न उठ खडे होते हैं। मसलन नियम में कमी है या नियति में कमी है, जवाबदेह कौन? जनता या नियम या नियम बनाने वाले नियन्ता अर्थात् सांसद, विधायक या वे राजनीतिक पार्टियाँ जो संसद के पवित्र मंदिर में दागियों को न केवल चुनकर भेजती है बल्कि उनके कुकर्मो को बेशर्मी भरे तर्क से यह कहते नहीं थकते कि अभी सजा नहीं हुई हैं, केवल आरोप है, केवल चार्जशीट दाखिल हुई है आदि-आदि यहाँ सोचने जैसा है ऐसे लोगों पर एक दो नहीं कई गंभीर प्रकृति के केस होते है या यूं कहें।        ऐसे लोग कई गंभीर प्रकरणों से लदे सर्टीफाईड भी होते हैं। अब जब ऐसे लोग माननीय हो जाते है तब शासकीय तंत्र भी उनकी चाकरी में लग जाता है, तब ऐसे लोगों का अहंकार भी सातवें आसमान पर होता है उनमें अहंकार आना भी स्वभाविक है कि अब वे नियम बनाने वाले होते है और हो भी क्यों न? वही समाज, वही जनता उन्हें भगवान से ज्यादा मानने का दिखावा, जय-जयकार जो करने लगती है। बस यहां से बुराई के हौंसले बुलन्द होने लगते है। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि चंद पैसो में बिकने वाले वोटर की अहमियत ही क्या हैं।
देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पहली बार देश की संसद में प्रवेश किया तब माथा टेक कर प्रण लिया कि भ्रष्टाचारी एवं दागियों की जगह जेल में है संसद में नहीं। लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि दागी एवं संगीन आरोपों से घिरे लोगों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। अब स्वतंत्रता के 73 वर्षों बाद भी देश की आधी आबादी को न तो सुरक्षा दे पाये और न ही समय पर न्याय।
हाल ही में हैदराबाद में गैंगरेप के अपराधियों को मारने का तरीका अर्थात् एनकाउंटर भले ही लोगों की अथवा कानून की नजर में कुछ भी लगे, लेकिन न्याय की आशा खो चुकी अधिकांश जनता ने पुलिस के अंजाम को सराहा। निर्भया की माँ उन्नाव काण्ड को देख अपनी आशा खो चुकी थी विगत् 7 वर्षों में क्या मिला? सिर्फ तारीख पर तारीख के सिवाए। उन्होंने भी हैदराबाद पुलिस के कृत्य पर संतोष व्यक्त किया। यहाँ प्रश्न यह उठता है आखिर क्या बात है लोग न्यायालय की जगह अपराधियों के एनकाउंटर पर हर्ष व्यक्त कर रहे है। आज महिला घर-बाहर यहाँ तक कि संसद में भी अपने को डरी महसूस कर रही है। हाल ही में संसद के अंदर एक महिला-सांसद पर पुरूष सांसद ने बाँहे चढ़ाकर आक्रमक मुद्रा में उनकी ओर बढ़ने की बात कही जिसे टी.वी. के माध्यम से देश के करोडों लोगों ने देखा। यहाँ यह एक सोचने की बात है कि हम किधर और कहाँ जा रहे है, ऐसे कृत्य के लिये कौन जिम्मेदार है?अब वक्त आ गया है जनता जवाबदेही के लिए अभियान चलाए। यदि किसी सेवक ने कार्य में या कत्र्तव्य में लापरवाही बरती है तो उसकी भी सजा शासकीय सेवक की भांति सस्पेंड या पद से मुक्ति क्यों नहीं? क्योंकि सभी जनप्रतिनिधियों को कर्मचारियों की भाँति वेतन भत्ते, पेंशन सरकारी खजाने से जो मिलते है फिर जवाबदेही क्यों नहीं?
हमें यह भी देखना होगा कि कानून में कौन-कौन से लूप-होल्स हंै, राजनीतिक पार्टियों को भी दृढ़ इच्छा दिखानी होगी, समयबद्ध विशेष न्यायालयों का गठन, सभी अपराधियों के लिए आवश्यक है ताकि जनता का न्याय पर भरोसा बना रहे। निःसंदेह नियम जनता की भलाई के लिए होते हैं लेकिन जब ये ही एक्सपायरी हो तो दुःख और कपट स्वभाविक हैं।