बलात्कार, हत्या एवं डकैती के मामलों में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अंतिम हो।


देश में पिछले करीब-करीब 10-12 दिनों से हाल ही में हुए बलात्कार की घटना और उसके हल की बहस मीडिया और जन मानस के केन्द्र में है। हैदराबाद की डॉ. प्रियंका रेड्डी के साथ दुष्कर्म और फिर हत्या के बाद देश में एक बार जन मानस में उससे भी अधिक उबाल नज़र आया है, जो कई वर्ष पूर्व दिल्ली में निर्भया काण्ड के बाद आया था। ऐसा नहीं है कि निर्भया काण्ड के बाद बलात्कार की और उसके बाद हत्याओं की घटनाएं देश में घटित नहीं हुई हो, परन्तु वे घटनाएं मीडिया में, स्थानीय और संस्करण वाद के भीतर सिमटी रही व राष्ट्रीय बहस का मुद्दा भी नहीं बनी। लोगों की भावनायें तेलंगाना के इस काण्ड के बाद बलात्कार को लेकर फाँसी की माँग और उनकी तत्काल हत्या करने जैसे रूप में अभिव्यक्ति हुई है और लोगों के द्वारा प्रमुखता से अभिव्यक्ति भी दी गई है। हैदराबाद की घटना के बाद मीडिया और जन मानस के दबाव में तेलंगाना सरकार का आना स्वाभाविक था। बलात्कारियों की मुड़भेड़ में मौत के बाद देशवासियों ने इस मुड़भेड़ को सही माना एवं एक प्रकार से उस पर मुहर भी लगाई। मीडिया में हैदराबाद से लेकर मुंबई की महिलाओं के फोटे छपे हैं, जिन्होंने पुलिस का स्वागत्् किया तथा फूल तक बरसाएं। इस घटना का अगर संक्षेप में विश्लेषण करें तो इसका एक अर्थ तो यह निकलता है कि आम लोग बलात्कार और हत्या जैसी जघन्य घटनाओं से कितने कुपित है वह बगैर किसी विलंब के आरोपी/ अपराधियों को दण्ड देने के पक्ष में है, सामान्य जनमानस की ऐसी सोच इसलिए भी बनी है कि जघन्य अपराधों के दण्ड में इतना विलम्ब होता है कि उससे अपराधी या तो बच जाते है या फिर मामूली से दण्ड के बाद छूट जाते है।  
मीडिया के प्रमुख खबरों से हटने के कुछ दिन बाद लोग भी घटना और उसके बाद की बातों को भूल जाते है तथा पुन: नए मुद्दे मीडिया प्रमुखता से परोस देता है और जन मानस का ध्यान उन नये मुद्दों की ओर मुड़ जाता है। इसमें कोई दो मत नही है कि हैदराबाद के बलात्कारियों की विवादित मुड़भेड़ में हत्या के बाद देश के आम मानस ने इसे सही कहा है। इसका प्रमुख कारण है कि देश की व्यवस्था से न्याय की उम्मीद लोगों को नहीं बची है। न्याय व्यवस्था को लेकर कहावत है कि, विलम्बित न्याय, न्याय नहीं होता और यह कहावत भारतीय पुलिस प्रशासन एवं न्याय व्यवस्था पर सटीक लगती है। लगभग एक दशक पूर्व महाराष्ट्र के नागपुर में अक्कू यादव नाम के एक अपराधी की समूह हत्या उसके मोहल्ले की महिलाओं ने मिलकर की थी, क्योंकि पिछले कई वर्षें से वह सभी अक्कू यादव के जुल्म का शिकार हो रहे थे। पुलिस की रिपोर्ट के अनुसार पुलिस अक्कू यादव से मिली हुई थी व उसका बचाव करती थी। कई वर्षें के जद्दोजहद के बाद जब महिलाओं को जुल्म से मुक्ति नहीं मिली तो उन्होंने लाचार होकर कानून अपने हाथ में ले लिया। मानवाधिकार वादियों ने इस घटना के बाद इसे मॉब लिचिंग कहा, कानून हाथ में लेने के अपराध के आधार पर बहस चलाई, परन्तु स्थानीय जन मानस समूह हत्या करने वाली महिला के पक्ष में था। क्योंकि उन्हें वर्षें से रिपोर्ट करने के बाद भी न्याय नहीं मिला था।  
हैदराबाद काण्ड के बाद भी जन मानस की प्रक्रिया देश की न्याय व्यवस्था के प्रति अविश्वास की घोषणा जैसी है। सर्वेच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी दशकों तक कुरूरतम अपराध करने वाले अपराधियों को मृत्यु दण्ड नहीं मिल पाता। दया-याचिकाएं बीस-बीस साल तक राष्ट्रपति और गृह मंत्रालय के बीच घूमती रहती है, और अपराधी जेल में रहते है। बंगाल के धनंजय चटर्जी जिसके ऊपर अबोध बालिका के साथ बलात्कार और हत्या का आरोप था, जिसे उच्चतम न्यायालय ने मृत्यु दण्ड दिया था। न्यायालय से फाँसी की सजा मिलने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के द्वारा फाँसी की सजा से उसे माफी देने की दया अपील स्वीकार करने पर देश में प्रश्न उठे थे जिनका आज तक उत्तर नहीं मिला है। दरअसल जन मानस न तो फाँसी के पक्ष में है न ही मुड़भेड़ के। इस दौरान कुछ लोगों ने फाँसी के औचित्य पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए है कि, क्या मृत्यु दण्ड से अपराध रूक सकते है, और फाँसी एक बड़ी सजा है, या आजीवन कैद। याने आजीवन कैद की पीड़ा फाँसी से भी ज्यादा है? यद्यपि यह अवसर इस प्रकार की बहस का नहीं है, और अगर बहस की भी जाए तो जन मानस की कसौटी ही मुख्य आधार होगी। पुलिस की गोली से व्यक्ति एक क्षण में चाहे अनचाहे मौत के मुँह में चला जाता है, एक अन्य तरीके में व्यक्ति सालों साल जेल में रहकर मानसिक, शारीरिक यातना और परतंत्रता का जीवन जीता है, परन्तु जन मानस में गोली या फाँसी से मरने वाला ही तरीका कहलाता है। जन मानस ऐसी तुरंत या शीघ्र सजा चाहता है जो उदाहरण बने और अपराधी इतने भयभीत हो जाए कि भविष्य में ऐसा अपराध करने का साहस न करें। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बोबडे का कथन नीतिगत है, कि बदला लेना न्याय नहीं होता, परन्तु देश का आम मानस इसे कैसे स्वीकारे या जज साहब और उनका परिवार, सत्ताधीशों के परिवार, विशेष सुरक्षाओं में रहते है, आमतौर पर मानव अधिकारवादी राजधानियों या बड़े शहरों में पाए जाते है और ये उच्च मध्यम वर्ग के परिवारों से होते है। देश के उन गाँवों में जहाँ गरीबी, अज्ञानता असुरक्षा और मानसिक और वाह्य अंधकार इतना गहरा है कि, व्यक्ति अपने आप में असुरक्षित महसूस करता है। वहाँ इस प्रकार के सिद्धांत और नीतियों के गम्भीर मामले उनकी समझ में कैसे आए वह तो व्यवस्था से निराश, उपेक्षित व भगवान भरोसे ही जीवन काटते है।  
यह अंदेशा सही है कि, कालांतर में स्वत: न्याय, प्रतिकार, हिंसा के बदले में हिंसा, समूह हत्याएं बढ़ सकती है परन्तु यह सब संभावनायें लोगों को तभी सहमत कर पायेगी जब उन्हें व्यवस्था में तुरंत और वास्तविक न्याय मिले तथा कानून को हाथ में लेना, या मुड़भेड़ गैर जरूरी लगने लगेगी। मुझे याद है कि 90 के दशक में राजस्थान के जयपुर में एक बच्ची के साथ दबंगों ने बलात्कार किया था और उस बच्ची के द्वारा रपट लिखाए जाने के बाद उन्होंने चुनौती देकर पुन: उससे बलात्कार किया। व्यवस्था पीड़िता को कोई न्याय नहीं दिला सकी क्योंकि दबंगों के संबंध शीर्ष सत्ताधीशों से थे। 07 दिसम्बर 2019 को इसी प्रकार बलात्कार के अपराधियों ने उन्नाव में जमानत पर छूटने के बाद पीड़िता को दौड़ा-दौड़ा कर जिंदा जलाया और उसकी बाद में मृत्यु हो गई। इस घटना के बाद आम इंसान का देश की व्यवस्था में, विश्वास कैसे होगा। जस्टिस बोबडे की नीतिपरख उपदेश लोगों को विश्वसनीय कैसे लगेंगे। उन्नाव की घटना के बाद तो मुझे रेल में यात्रियों की चर्चा में एक नया प्रकार का दृष्टिकोण मिला। कुछ लोगों ने यहाँ तक कहा कि, अगर उन्नाव के बलात्कारी और जिंदा जलाने वाले यादव या ऐसी किसी बिरादरी के होते तो मुड़भेड़ में मार दिए जाते। याने उनके मन में प्रशासन की जाति का भाव या शक बहुत गहरा है दूसरे शक की पुष्टि भी होती है कि जब ऐसे व्यक्तियों को गिरतार कर पुलिस के अधिकारी ससम्मान थाने में बिठाकर चाय नाश्ता कराते है, उनकी सेवा करते है और सारा देश टी.वी. पर इस घटना को देखता है। अगर जस्टिस बोबडे ने अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर स्वत: संज्ञान लेकर कि जमानत कैसे हुई इसकी जाँच की होती, पुलिस के विरूद्ध भी शक्त टिप्पणी और आदेश किए होते तो उनके उपदेश का नैतिक असर होता। परन्तु हम अपनी व्यवस्था नहीं बदलेंगे आप अन्याय सहते रहिए। इस समय देश ऐसे निगुण उपदेशों को सुनने या उनसे प्रभावित होने की मनोदशा में नहीं लगता। तेलंगाना के साथ उ.प्र., फिर बिहार, म.प्र., झारखण्ड, दिल्ली याने लगभग सभी प्रकार के राजनैतिक दलों की सरकारों में ऐसी जघन्य घटनाएं घट रही है। बलात्कारी किस पार्टी की सरकार है यह नहीं देखते बल्कि वे तो अपराध करते है।  
हैदराबाद की घटना के बाद एक चिंताजनक समाचार आया जिसे नज़र अंदाज़ किया गया। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 80 लाख लोगों ने बलात्कार का पोर्न देखने का गूगल या सोशल मीडिया पर प्रयास किया। देश की आबादी में लगभग सत्तर से अस्सी करोड़ बच्चे है जो अभी पोर्न नहीं जानते, 40 करोड़ महिलाएं है जो बलात्कार का पोर्न नहीं देखेंगी। याने देश की आबादी का 5 फीसदी बलात्कार में रस और नग्नता देख रहे है। अच्छा होता कि, जस्टिस बोबडे सरकार को आदेश देते कि सभी प्रकार के मीडिया में गंदे और पोर्न चित्रों के प्रदर्शन पर रोक लगायी जाए और महिलाओं को विज्ञापनों के माध्यम से बाजार का माल न बनाया जाए। देश उनके इस कदम का हृदय मन से स्वागत करता। मीडिया युवकों के दिमाग में यौन भावनाओं को इस प्रकार भर रहा है तथा वह यौन हिंसा में तब्दील हो रहा है। यह प्रवृति और बढ़ सकती है, अगर हम सभी समय रहते सचेत नहीं हुए। 
मैं आखरी बात यही कहूँगा की देश को आबादी के नियंत्रण पर निर्णय करना चाहिए। आबादी वृद्धि ने और भोग की अतिरिक्त इच्छाओं ने सार्वजनिक स्थानों, बगीचों, पार्कें को युवकों की यौन क्रीड़ाओं के केन्द्रों में तब्दील कर दिया है। उनके पास अपनी तृप्ति के लिए स्थान और साधन नहीं है, इसलिए अब यह सार्वजनिक स्थल मर्यादा या व्यक्ति मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ रहे है।  
कितना ही कठोर कानून अपराध को समाप्त नहीं कर सकता। अपराध को मिटाने के लिए कानून के साथ-साथ तुरंत न्याय व्यवस्था, दिमाग की गंदगी की सफाई भी जरूरी है। सरकार को यह कानून बनाना चाहिए :- 
1. बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों के लिए फास्ट ट्रेक कोर्ट अनिवार्य हो तथा 30 दिवस में निर्णय का कानून बने।  
2. मीडिया में नग्नता और नारी को परोसने पर पूर्ण प्रतिबंध लगे।  
3. आबादी नियंत्रण कानून पारित कर आबादी वृद्धि को रोका जाए।  
4. अपराधियों को राष्ट्रपति के द्वारा माफी के प्रावधान को संशोधित किया जाए तथा बलात्कार, हत्या, डकैती, जैसे अपराधों के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम हो।