अपनी जिम्मेदारी से दूर भाग रहे भारतीय समाचार चैनल


देश में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ जमकर विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। इनमें से कुछ प्रदर्शनों ने हिंसा का रूप भी ले लिया है। जिसमें कहीं न  कहीं मीडिया चैनल  की आवाज भी दब गई है। ऐसा लगता है कि टेलीविजन चैनलों, समाचारपत्रों और सोशल मीडिया के लोग अपने जिम्मेदारियों से भागकर अपने आर्थिक हितों का ध्यान रखते हुए अपना कार्य कर रहे हैं। अथवा उन पर सरकार का दबाव ऐसा बना हुआ है। जिसका मुकाबला करने की उनकी स्थिति नहीं बची है। मीडिया खासकर टीवी चेनल नागरिकों के अधिकारों और उनकी समस्याओं की जानकारी देने, लोगों को जागरूक करने और उनके उमड़ते सवालों के जवाब अथवा उत्तेजना को शांत करने में नकाम है। तमाम काशिशों के बाद भी मीडिया नागरिक कानून के बारे में लोगों नहीं समझा पा रही है। समाचारपत्रों, एक-दो समाचार चैनलों और करीब आधा दर्जन समाचार वेबसाइट को छोड़कर बाकी सभी मीडिया प्रतिष्ठानों ने इस मुद्दे की रिपोर्टिंग में बेहद खराब काम किया है। भारतीय समाचार चैनलों के तेजी से बढऩे का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि जमीनी स्तर पर वास्तविक रिपोर्टिंग खत्म हो चुकी है। पूरी व्यवस्था एंकरों के इर्दगिर्द संचालित हो रही है। भारत में टीवी की पहुंच 83.6 करोड़ लोगों तक है।जबकि इंटरनेट उपभोक्ता 66 करोड़ और समाचारपत्र के पाठक 40 करोड़ हैं। इनमें  से समाचार चैनलों की पहुंच 26 करोड़ से अधिक दर्शकों तक है। इसके साथ 5-10 करोड़ सोशल मीडिया के ऑनलाइन माध्यमों से समाचार चैनल देखने वालों का आंकड़ा सामने आया है। 
पहलें भारत में मुश्किल से दस समाचार चैनल थे, वहीं अब यह संख्या सर्वाधिक 400 के पार हो चुकी है। इनमें से आधे समाचार चैनलों का स्वामित्व रियल एस्टेट दिग्गजों, नेताओं और उनके सहयोगियों के पास है। जो पूरी तरह विज्ञापन अथवा  अपने कारोबारी  उद्देश्यों को पूरा करें पर निर्भर है। विज्ञापन अधिक दर्शकों वाले चैनलों के ही खाते में जाते हैं। इसका नतीजा यह है कि बीते दशक में टेलीविजन चैनलों के समाचार और कार्यक्रमों की गुणवत्ता एवं विश्वसनीयता लगातार नीचे की तरफ गिरती चली गई। भारतीय समाचार चैनल बलात्कार, हत्या हिंदू मुस्लिम की डिबेट राष्ट्रीयता की डिबेट और हिंसा जैसे मुद्दों को अहम मान लिया हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यावरण, भीड़ की हिंसा, अर्थव्यवस्था या किसानों की बदहाली पर कोई भी चर्चा नहीं हो रही है।जिसे देखकर समाचार चैनलो की विश्वसनीयता  घट गई है।वहीं उनकी लोकप्रियता  भी  काफी कम हुई है। पाकिस्तान जैसे अप्रासंगिक देश को लेकर समाचार चैनलों में छाई सनक और भारत जैसे देश में  पाकिस्तान जैसे  देशों से तुलना करना आश्चर्यजनक है। अधिकतर समाचार चैनलों पर जो विशेष कार्यक्रम परोसे जा रहे हैं।वो सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप संदशों का विस्तार रुप धारण कर लेता है। सम्मेलनों और डाइनिंग रूम में उन्हें दर्शाया जाता है। इस तरह वह ऐसे उत्पाद में बदल जाता है।जो हमारे राजनीतिक एवं सामाजिक निर्णयों को प्रभावित करने लगता है। जिससे हमारी भारतीयता की सामूहिक भावना और ज्ञान के स्तर पर होने वाली जानकारी के स्थान पर नुकसान पहुंचाने वाली है। इस बात को तमाम भारतीय अभी भी नहीं समझ पा रहे हैं। बड़ी मुश्किल से हासिल एवं सींचे गए लोकतंत्र की कुछ आखिरी निशानियों की मौत पर जश्न मना रहे हैं। वित्तीय रूप से समाचार टीवी चैनलों का बाजार महज 3,000-4,000 करोड़ रुपये का है।जबकि टीवी उद्योग का आकार 74,000 करोड़ रुपये है। जिनमें से दो चैनल ही बड़ी मुश्किल से लाभ कमा पाते हैं। समाचार चैनलों ने सामाजिक रूप से उस भारत को तबाह कर दिया है।जिसकी सारी दुनिया विविधता के साथ भारत की  सामाजिक व्यवस्था की तारीफ करती रही है। अब इस हालात पर क्या किया जा सकता है?  इस पर विचार किया जाना जरुरी है। इस स्तंभ में पहले भी सुझाए जा चुके बिंदुओं में तीन काफी अहम हैं। पहला, दूरदर्शन और आकाशवाणी का संचालन करने वाले प्रसार भारती कॉर्पोरेशन को केंद्र सरकार से वित्तीय एवं प्रशासनिक तौर पर स्वतंत्र किया जाए। दूसरा, समाचार प्रसारण में सरकार का हस्तक्षेप कम हो विज्ञापन के माध्यम से उन्हें दबाने या पुरस्कृत का काम नहीं होना चाहिए। समाचार चैनलों को विदेशी निवेश से दूर रखा जाना अनिवार्य है। चैनलों के स्वामित्व मानकों को बदलना जरुरी है। क्योंकि सबसे अच्छे एवं मुनाफे में चलने वाले वैश्विक समाचार ब्रांड का स्वामित्व ऐसी कंपनियों के पास है। जिसकी कमान ट्रस्ट संभालता है। अगर भारतीय सिनेमा ने सॉफ्ट पावर का प्रतीक बनकर हमें वैश्विक बाजार में गौरव दिया है। वहीं भारतीय समाचार चैनलों की सबसे खराब पत्रकारिता ने हमें सारी दुनिया में शर्मसार भी किया है। समाचार चैनलों को गंभीरता के साथ मीडिया की विश्वसनीयता और निष्पक्षता को अपनाने की जरुरत है। तभी इन समस्या ओं से निपटा जा सकता है। समाचार चैनल अभी जिस तरह से आम आदमी की समस्याओं को अनदेखा कर रहे हैं। सत्ता के इशारे पर काम कर रहे हैं। उससे आम जनता के बीच मीडिया की विश्वसनीयता खत्म हुई है। यही कारण है की सरकार पूरी तरह अंधेरे में हैं।अभी जो चुनाव परिणाम सामने देखने को मिल रहे हैं।जिस तरह के उग्र आंदोलन,प्रदर्शन सारे देश भर में चल रहे हैं। यदि मीडिया सही तरीके से समाज और सरकार के बीच संवाद कायम कर रहा होता। तो ऐसी स्थिति नहीं होती।