संकीर्णता नहीं उदारवाद है भारत की  पहचान


नागरिकता संशोधन विधेयक आख़िरकार लोकसभा के बाद राज्य सभा में भी पारित हो गया। इस विधेयक के समर्थन तथा विरोध में संसद के दोनों सदनों में ज़ोरदार बहस हुई। राज्यसभा में इस विधेयक के पक्ष में 125 मत पड़े, जबकि इसके विरोध में 105 सदस्यों ने मतदान किया। स्वतंत्रता के बाद यह पहला अवसर है जबकि धर्म के आधार पर भारत की नागरिकता दिए जाने संबंधी कोई धर्म आधारित विधेयक देश की संसद ने पारित किया है। जहाँ सरकार इसे वक़्त की ज़रुरत बता रही है तथा यह कह रही है कि इस विधेयक को पारित कराकर सरकार ने अपना वादा पूरा किया है वहीँ विपक्ष इसे 'हिटलर के क़ानून' से भी भयावह या काळा क़ानून की संज्ञा दे रही है। इस विधेयक को भारतीय संविधान की मूल आत्मा पर प्रहार भी बताया जा रहा है। जबकि सरकार इसे पारित कराकर अपनी पीठ थपथपा रही है। इस के अंतर्गत अब बांग्लादेश, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख समुदाय  से संबंध रखने वाले लोगों को भारतीय नागरिकता दी जा सकेगी। वर्तमान क़ानून के अनुसार भारतीय नागरिकता लेने हेतु कम से कम 11 वर्ष भारत में रहना अनिवार्य है परन्तु अब  नए नागरिकता संशोधन क़ानून में  बांग्लादेश, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के  हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख समुदाय के लोगों के लिए यह समयावधि 11 से घटाकर छह वर्ष कर दी गई है। सरकार का मानना है कि बांग्लादेश, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान में  हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख समुदाय अर्थात वहां के अल्पसंख्यकों के साथ ज़ुल्म,असमानता तथा उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं इसलिए अब धर्म के आधार पर भारत उन्हें नागरिकता दिए जाने पर विचार कर सकता है। 
इस 'कारगुज़ारी' के लिए जिन राष्ट्रों को चिन्हित किया गया है उनमें बंगलादेश, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान मुस्लिम बाहुल्य देश हैं और जिन छः समुदायों यानी हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई और सिख समुदाय को नागरिकता देने हेतु रेखांकित किया गया है उनमें मुसलमानों का नाम शामिल नहीं है। जबकि हक़ीक़त यह है कि इन देशों में सबसे ज़्यादा अत्याचार मुसलमानों पर ही ढाए जा रहे हैं। इन देशों में  हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई व सिख समुदाय के लोगों से ज़्यादा प्रताड़ना शिया,बरेलवी,अहमदिया तथा सूफ़ी मत से संबंध रखने वालों लोगों को सहन करनी पड़ रही है। परन्तु भारत के दरवाज़े इन समुदायों के प्रताड़ित लोगों के लिए बंद रहेंगे। क्या यही है उस भारतीय संविधान की मूल भावना जिसने धर्म,जाति व क्षेत्र से ऊपर उठ कर उदारवाद की राह पर देश को आगे ले जाने का संकल्प लिया था? सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी हालांकि संविधान का सम्मान करने का दावा करती रहती है परन्तु  नागरिकता संशोधन विधेयक के पारित होने के बाद एक बार फिर यह साफ़ हो गया है कि सरकार भारतीय संविधान की मूल भावनाओं का आदर करने के बजाए अपने गुप्त एजेंडे पर आगे बढ़ने के प्रति अधिक गंभीर है। और निश्चित रूप से भाजपा की पूरी राजनीति तथा उसके सहयोगी व संरक्षक संगठनों की विचारधारा भी मुस्लिम विरोध पर ही आधारित है। 
2014 में भाजपा के सत्ता में आने से लेकर अब तक देश के मुसलमानों के साथ,देश की मुसलमानों से जुड़े ऐतिहासिक व यादगार स्थलों व शहरों,ज़िलों के साथ क्या कुछ किया जा रहा है पूरा विश्व देख रहा है। अब तक सैकड़ों शहरों,ज़िलों स्टेशनों के नाम सिर्फ़ इसलिए बदल दिए गए हैं क्योंकि वे देखने सुनने में इस्लाम या मुसलमानों से संबन्धित प्रतीत होते थे। जैसे फ़ैज़ाबाद को अयोध्या और इलाहबाद को प्रयागराज व  मुग़लसराय को दीन दयाल उपाध्याय नगर बनाना। वैसे भी भाजपा में राजनैतिक रूप से मुसलमानों को जो प्रतिनिधित्व हासिल है उसे देखकर भी साफ़ लगता है कि भाजपा को भारतीय संविधान की मूल भावनाओं का सम्मान करते हुए सभी धर्मों के लोगों को साथ लेकर चलने में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसके बजाए भाजपा बहुसंख्य हिंदूवादी राजनीति कर सत्ता नियंत्रण हासिल करने की नीति पर अधिक विश्वास रखती है। भाजपा इस बात को भली भाँति समझ चुकी है कि देश में हिन्दू मुस्लिम के बीच सदियों से चले आ रहे सद्भावपुर्ण वातावरण में पलीता लगाया जा चुका है और धीरे धीरे हिन्दू मुस्लिम समुदायों के बीच नफ़रत की खाई को गहरी करने में भी वह कामयाब रही है। कश्मीर से लेकर असम तक उठाए जा रहे सरकार के क़दमों से भी यह साफ़ ज़ाहिर होता है। 
सवाल यह है कि भारतीय संविधान की रक्षा व सम्मान करने की दुहाई देने वाली सरकार धर्मनिरपेक्ष भारत में किसी भी व्यक्ति के साथ आख़िर धर्म के आधार पर भेदभाव किस तरह कर सकती है ? असम, मेघालय, मणिपुर, मिज़ोरम, त्रिपुरा, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश जैसे देश के पूर्वोत्तर राज्यों में भी इस विधेयक का बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है। परन्तु सरकार इन जनविरोधों की अनदेखी करती हुई 'संघ' के अपने एजेंडे पर आगे बढ़ती जा रही है। भाजपा संविधान का सम्मान करने वाले दलों को हमेशा मुस्लिम परस्त या मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाला बताती रही है तथा संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का मज़ाक़ उड़ाती रही है। मंदिर,गाय हिंदुत्व,पाकिस्तान विरोध आदि के नाम पर वोट मांगकर विकास,घटती विकास दर, बेरोज़गारी व मंहगाई जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाना सत्तारूढ़ दल की चतुर नीति रही है। यही वजह कि पार्टी नेता चुनावों में भी जनसरोकारों से जुड़े मुद्दे कम और भावनात्मक मुद्दे ज़्यादा उठाते हैं। भाजपा व इसके नेताओं को इस बात की क़तई फ़िक्र नहीं है कि साम्प्रदायिक आधार पर देश का ध्रुवीकरण करने वाले यह लोग संविधान की शपथ लेने के बावजूद संविधान की खिल्लियां भी उड़ा रहे हैं ?
परन्तु किसी भी प्रकार से सत्ता हासिल करने की कला में निपुण राजनीति के इन महारथियों को एक बात ज़रूर सोचना चाहिए कि सत्ता के बहुमत के नशे में चूर होकर वे चाहे जितना साम्प्रदायिकता पूर्ण क़ानून बनाने या धर्म के आधार पर देश को विभाजित करने की कोशिश क्यों न करें परन्तु धर्मनिरपेक्षता व सर्वधर्म समभाव भारत के संविधान में ही नहीं बल्कि देश के स्वभाव व प्रकृति में भी शामिल है।  हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई शताब्दियों से एक दूसरे से आत्मिक रूप से जुड़ा हुआ है। इतिहास के पन्नों में ऐसे तमाम क़िस्से दर्ज हैं जो हमें यह बताते हैं कि समाज को विभाजित करने वाली शक्तियों की लाख कोशिशों के बावजूद तथा अनेक साम्प्रदायिकता पूर्ण भूचाल आने के बाद भी यह देश हमेशा एक रहा है और आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में भी हमेशा एक रहेगा। हाँ नागरिकता संशोधन जैसे क़ानून बनाने की कोशिशों से सत्ताधरी दल की मुस्लिम विरोधी तथा संविधान विरोधी नीति ज़रूर बार बार उजागर होती रही है। ऐसे प्रयास करने वालों को यह बात हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि विश्व में भारतवर्ष की पहचान संकीर्ण नहीं बल्कि उदारवादी देश के रूप में बनी हुई है। एक ऐसे देश के रूप में दुनिया भारत को जानती है जो वसुधैव कुटुम्बकम्व सर्वे भवन्तु सुखनः जैसी मानवतावादी नीतियों का अलम्बरदार है।